मेरी मजबूरी रोटी

कुलबुलाती है, भूख बिलबिलाती है।
ठंडी रातों में भी जेठ सी जलाती हैं।
अपनी मजबूरी के किस्से को,
मासूम आँखों से झलकाती है।।

नहीं कोई मजहब, ना कोई रब इसका,
ना कोई धर्म, ना कोई जात इसका।
भूखा इंसान जूठा निवाला निगलता है ।
अपने भार से भी ज्यादा वजन उठाता है।।

पेट में ज्वाला धधकती है
भूख रोटी-रोटी छटपटाती है।
दिन भर कोल्हू जैसे खटते,
पानी पीकर नींद नहीं आती है।।

गर्मी कुम्हार के आँवे जैसी तपाती,
रात सर्दी की हाड़ माँस कँपाती।
बरसात भी खून के आँसू रुलाती,
लेकिन पापिन भूख सही नहीं जाती।।

भूख से बड़ा कोई भार नहीं
रोटी से बड़ा ईश्वर नहीं।
पेट को दाब हाथों से,
बच्चों को सोना आता नहीं ।।

कहते तरक्की, बाल श्रम पर कानून-कायदे,
फिर वही रोटी की लुभावनी कसमें वादें।
स्थिति? भूख रोती है कुलबुलाती है!
मजबूरी खून के आँसू रुलाती है।।

~ अंशु प्रिया अग्रवाल


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