गाँव की छटा और खूबसूरती को कलमकार मुकेश वर्मा ऋषि ने इस कविता में बखूबी दर्शाया है। लोकगीत, हरियाली, बाग-बगीचे, खेत, किसान और ग्रामीण लोगों से भरी हुई जगह एक सुंदर गाँव ही होती है।
वृक्षों और लताओं से घिरा हुआ
पीपल वाली ठंडी छाँव देता मेरा गाँव
मृदुल नीर से भरा सरोवर लेता हिलोर
कोयल की कूक करती मन विभोरअमृतरुपी जल से भरी कल-कल करती सरिता
खुले नील गगन के नीचे मोर – पपीहा नाचें
देर शाम को चौपालों पर जिंदा होते आल्हा – ऊदल
मेरे गाँव में अब भी ईमान-धर्म सब हैं प्रबलकृषक खेत में कर परिश्रम अन्न उगाते
स्वयं भूखे रहकर निज राष्ट्र की भूख मिटाते
कर भरोसा किस्मत पर, कर्मपथ पर चलते जाते
विघ्न-बाधाओं से लड़कर शीश उठाकर जीते जातेरहकर फकीरों से, काम भूपों के करते हैं
गाँवों में स्वार्थी आदमी नहीं, नेकदिल इंसान रहते हैं
प्रभु से प्रार्थना मेरी! मेरे गाँव को शहर की नजर ना लगे
अपने – पराये सब यहाँ मिलकर रहते हैं सगे~ मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
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