प्रकृति अब खिल रही है
कैद करके हमें घरों में
वो स्वतंत्र जी रही है
कुछ अलग ही रौनक है अब
पत्ते-पत्ते में, डाली-डाली में
फूल भी खिलखिला रहें है
भौंरे भी गा रहें हैं
पंछी भी चहचहा रहे हैं
मानो वो अपनी जीत का
जश्न मना रहे हैं
प्रकृति अब खिल रही है
कैद करके हमें घरों में
हमसे प्रतिशोध ले रही है
अब वो स्वतंत्र जी रही है
हवाएं भी स्वच्छ है
नदियाँ भी निर्मल
झरने भी करते कलकल
ओज़ोन भी रही सम्भल
कैद करके हमें घरों में
प्रकृति कर रही स्वछन्द विचरण
~ सचना शाह