गैरों की क्या बात करें, अपनों ने ही दामन खींचा है।
वो पेड़ तो लहराता है, जिसको अंसुओं से सींचा है।।
सोचा था मैंने इक दिन, मुझको देगा हवा वो ताजी।
अब तो वो बड़ा हो गया, अब वो चलाता है आंधी।।
मेरा छत भी छोड़ा ना, उसके तेज हवा के झोंकों ने।
आँखे भी मेरी धुंधलाईं हैं, उससे उड़ती हुई रेतों ने।।
खुद पे गुमां था इतना, कि उड़ा दूंगा पूरी बस्ती को।
पल भर में मिटा दूंगा, मैं इस जहाँ की सारी हस्ती को।।
यह सोच कर वेग हवाओं का, उसने और बढ़ा डाला है।
उसके इस पागलपन ने, खुद को ही मिटा डाला है।।
मुझे मिटाने के चक्कर में, वो खुद ही गिरा पड़ा है।
उसकी हर इक डाली, अब तो चूल्हे में पड़ा हुआ है।।
उसकी कुछ डाली को मैंने, अब भी संभाल कर रखा हूँ।
मर जाऊँ तो मुझे जलाना इससे, अपनों से कह रखा हूँ।।
उसने किया था जो वादा खुद से, उसको मैं निभाऊंगा।
उसके साथ मैं जल जाऊँगा, और खुशी उसे दिलाऊंगा।।
~ अमित मिश्रा