संतान को माँ अपनी पीड़ा कभी जाहिर होने नहीं देती। ऋषभ तिवारी की कविता “माँ की व्यथा” इसी भाव को दर्शाती हैं।
दरवाजे पे हो दस्तक, तो माँ समझे कि मैं आया
सोती न जगती कहती रहती, बेटा देखो घर आया
अंधेरे सारे क़िस्मत के, हँसते हँसते सह लूंगा
उजाला मैं ही ले आऊंगा, वादा जो तुझसे कर आया
जेबें थी खाली पापा की, वो भी न तूने बतलाया
गहने बिक़वाये अपने तूने, पढ़ने मुझको भिजवाया
मेरे मोबाइल में बैलेंस की चिंता, दवा को तूने ठुकराया
धिक्कार होगा ऋषि तुझपे गर, अब भी न कुछ हो पाया
~ ॠषभ तिवारी ‘ॠषि’