पितृपक्ष: पितरों का श्रद्धापूर्वक स्मरण

Tue, 1 Sep, 2020 – Thu, 17 Sep, 2020 : भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के १६ दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हिन्दू धर्म के अनुयायी अपने पूर्वजों/पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक कुछ न कुछ अर्पित कर श्राद्ध किया जाता है। हिन्दी कलमकारों ने पितृपक्ष और श्राद्ध के बारे में अपनी इन कविताओं में बताया है।

श्रद्धा ही श्राद्ध है

श्रद्धा ही श्राद्ध है
इसमें कहाँ अपवाद है।
सत्य सनातन सत्य।
जो वैज्ञानिकता का आधार है।
इसमें कहा अपवाद है।
श्रद्धा ही श्राद्ध है।

सत्य-सनातन संस्कृति पर,
जो उंगलियां उठाते है।
इसे ढोंगी, ढपोरशंखी बताते है।
वो भरम में ही रह जाते है।
आधें सच से, सच्चाई तक,
कहाँ पहुंच पाते है।

श्राद्ध श्रद्धा और विश्वास है।
यह निरीह प्राणियों की आस है।
यह मानव कल्याण का सृजन है।
यह पर्यावरण का संरक्षक है।

यह ढ़ोग नही है।
यह ढ़ाल है।
यह मानव का आधार है।
इसीसे निकलें,
सभी धर्म और विचार है।

सत्य सनातन को ,
कौन झुठला सकता है।
लेकिन अफवाहें फैला कर।
इस पर आक्षेप तो
लगा ही सकता है।

रीतियों को,
कुरीतियां बता कर,
कटघरे में खड़ा तो,
कर दिया गया।

क्या हमनें और आप ने,
सच को समझने का,
कभी हौंसला किया।
हम समझें नही।
लेकिन हमने,
हां में हां तो मिला दिया।

फिर श्रद्धा, कहाँ श्राद्ध है।
श्राद्ध को लेकर,
भ्रांतियां और अपवाद फैलाते रहे।
लेकिन, सनातन सत्य को न समझे।
उसी से निकल कर,
नये विचारों का गुनगान गाते रहे।

श्राद्ध को,
पितृ तृप्ति तक पाते रहे।
निरीह प्राणियों का पोषण,
क्या संस्कार देगें।
अगली पीढ़ी को,
यह भूल जाते रहे।।

मानता हूँ
जब शरीर ही नही है
तो अन्न का पोषण किस अर्थ में
हम ढ़ोग कह कर,
यह बिगुल तो बजाते रहे।
लेकिन सही अर्थ तक,
हम कहाँ पहुंच पाते रहे।।

क्यों नही समझ पायें।
असंख्य जीवों के,
पोषक तो मनुष्य ही है।
क्या उदाहरण दे
जिस से वह,
अपनों से,
और निरीह जीवों से जुड़ पाते।

संस्कार और संस्कृति को,
जब सही ढंग से,
नही जान पाते है।
तब ढोंगी लोग,
भावनाओं से,
छलावा कर
मानव को भटकाते है।

प्रीति शर्मा “असीम”
कलमकार @ हिन्दी बोल India

पितृपक्ष

पितरों का श्राद्ध हम सभी करते है
पितरों को तर्पण भी हम करते है
पुण्य मिले सदा जो हम सबको
पितरों का हम सम्मान भी करते है।।

अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक
पितरों को जल अर्पण करते पंद्रह दिन तक
उनकी पुण्यतिथि पर पार्वण श्राद्ध हम करते
पितरों का उद्धार करते उनकी तृप्ति तक।।

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है
वैसे ही पशुओं का आहार तृण है
सारतत्व में गंध और रस है आते
पितरों का आहार अन्न का सारतत्व है।।

देते हम पितरों को अन्न जल का तृण
विश्व देव एवं अग्निश्वत इन्हीं का तृण
वंशवृद्धि उपाय पितरों की अराधना है
हम लेते है पितरों को तर्पण करने का प्रण।।

नवनीत शर्मा
कलमकार @ हिन्दी बोल India

पितृमोक्ष

पितृपक्ष
पितरों के प्रति
श्रद्धा एवं कृतज्ञता व्यक्त
करने का अवसर..
धर्मानुसार पिता-माता की
मृत्यु के पश्चात्‌
उनकी तृप्ति के लिए
श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले
कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌
अर्थात जो श्र्द्धा से
किया जाय वह श्राद्ध है।
आज़ सुबह से ही
कौवों का एक छोटा झुंड
काँव काँव करता..
घर के छत पर मंडरा रहा था
उनमें से कुछ बार बार नीचे
आता फिर पुनः ऊपर चला जाता
कुछ की तलाश थी या
कुछ कहना चाहता था शायद
पर क्या समझ से बाहर
सुन रखा था कि
पितृपक्षीय काल में
कौऐ को खाना खिलाने से
वह भोजन पितरों को मिलता है
इसका कारण यह भी था
कि पुराणों में कौऐ को
देवपुत्र माना गया है
इसलिए कि इन्द्र के पुत्र
जयंत ने सबसे पहले
कौए का ही रूप धारण किया था
क्या मन हुआ कि कुछ दानें
चावल के डाल दिए मुंडेर पर मैने
मेरे चावल डालते ही सारा झुंड
सहसा छत के मुंडेर से आ लगा
और चुगने लगा एक एक दाना
फिर पास लगे गमले से
दूध और पानी के बिखरे अंश
गट गट कर गटकने लगें
गला मानों तर हो गया हो उनका
उनमें किससे किसका क्या संबंध था
कौन किसका क्या लगता था कुछ ज्ञात नहीं
पर उनमें एक बहुत शांतचित्त कौवा
उन व्याकुल कौवों को
देख रहा था ऐसा लग रहा था
मानों कोई फिक्र नहीं थी उसे
न चिलचिलाती गर्मी की
न उसे अपनी भूख और प्यास की
बिखरे चावल के दानों को छोड़
बस लगातार तुलसी चौड़े पर
पड़े फूल और बेलपत्रों
को निहार रहा था
जो आज सुबह ही
तिल अक्षत जल गुड़ के साथ
पित्रों को पुष्पांजलि
अर्पित किया था मैने
एक अजीब सी संतुष्टि थी
उस कौवे के चेहरे पर
मानों कह रहा हो मुझसे
मैं कौवा बन कर
तुम्हारे दर कुछ चुगने नहीं आया
बल्कि स्वयं की अंत्योष्टि को
पूर्ण करने आया हूँ..
और सदा इसी भाव में आता रहूँगा
पहचान सको तो पहचान लेना
मैं तुम्हारा गुज़रा कल भी हूँ
और तुम्हारा भविष्य भी..
यह कह कर तुलसी चौड़े पर
पड़ा बेलपत्र मुँह में ले
ऊपर आकाश की ओर उड़ गया

कहीं पढ़ा भी था
पितृ पक्ष में पितर आपसे
नाराज हैं या प्रसन्न आपके अर्पित
पिंडों के स्वीकार्य से पता चलता है
गरुड़ पुराण में भी कहा गया है
कि कौवा यम का प्रतीक होता है
जो दिशाओं का फलित बताता है
इसलिए श्राद्ध का एक अंश
इसे भी दिया जाता है
एवं कौवों को पितरों का
स्वरूप भी माना जाता है
कहते हैं श्राद्ध का भोजन
कौओं को खिलाने से
पितृ देवता प्रसन्न होते हैं
और श्राद्ध करने वाले को आशीर्वाद देते हैं
पर मैने तो आज़ कोई
पिंडदान किया नहीं था
ना ही कोई श्राद्धकर्म
तो उस कौवे के चेहरे पर
इतनी शांति क्यूँ और
उसका मन इतना संतुष्ट क्यूँ?
और उसने क्यूँ कहा मुझसे
कि मैं तुम्हारे पास कुछ लेने
या चुगने नहीं आया
बल्कि अपने अंत्येष्टि
स्वयं की अंत:तृप्ति को
पुर्ण करने आया हूँ
ताकि तुम और तुम्हारा मन
पितृ मोक्ष की संतुष्टि के
चरम सीमा को पार सको
मैं नि:शब्द मौन सुनता रहा
पास कोई शब्द ही नहीं थे
कि अपने मन की अभिव्यक्ति
व्यक्त कर सकता और गर
करता भी तो उन्हें समझा
पाता कि नहीं कह नहीं सकता
क्योंकि मैं आज़तक
समझ नहीं पाया कि मरणोपरांत
यह श्राद्धकर्म और पिंड दान की
आवश्यकता क्या और क्यूँ होती?
जबकि कितने माता पिता
अनगिनत कष्टों के झेलते हुए
जिंदा रहते अपने प्राणों का
तर्पण पहले ही कर चुकें होते हैं
उनके जीते जी तो उन्हें
पेट भर भोजन नसीब नहीं होता
और मरणोपरांत उन्हें काग रूप मान
खीर पुरी खिलाते हैं ब्राह्मण भोज कराते हैं
कितना अच्छा हो कि उनके
जीते जी ही उनको हर ख़ुशी
हर सुख प्राप्त हो जिनके वो अधिकारी हैं
ताकि उन्हें काग रूप धारण कर
भटकना ही नहीं पड़े
फिर सोचता हूँ
यही पितृमोक्ष हो शायद
पितरों के आत्मा को तृप्त करना
या फिर समस्त देवी देवताओं
ग्रहों व ऋषियों का आवाह्न कर
तिल अक्षत गुड़ जल
एवं पुष्प तर्पण कर
पित्रों के पुनः नए सुखद
जीवन की प्रार्थना या प्रारंम्भ वंदन?

विनोद सिन्हा “सुदामा”
कलमकार @ हिन्दी बोल India

पितृ पक्ष

जीते जी जिनका ख्याल न रखा
मरने के बाद उनको दे रहे हैं तर्पण।
भूखे पेट जिन्हें रखा वृद्ध होने पर,
उनको कर रहे छतीस प्रकार के व्यंजन अर्पण।

क्या यही पितरों का ख्याल है,
जिंदा होने पर जिनका जीना मुहाल था,
मरने पर उनकी सेवा करने को बेहाल हैं।

पितृ पक्ष में सही है कि पूर्वजों का ख्याल रखते,
उनकी आत्मा की शांति के लिए
लाखों जतन करते,
काश कि जिंदा रहने पर भी उतना ही ख्याल रखा होता,
उनके लिए प्रेम आदर परवाह का फिक्र किया होता।

मैं नही हूँ सनातन प्रथा की विरोधी,
मैं नही हिन्दू धर्म के मार्ग में अवरोधी,
पर बार बार है यह सवाल मन मे गूँजता,
जिंदा का ख्याल नही मरने पर कैसा तर्पण।
आ गया पितृ पक्ष और शुरू हो गया बाह्य आडंबरों का दर्पण।

रुचिका राय
कलमकार @ हिन्दी बोल India

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.