ऋषभ तिवारी ‘ऋषि’ की स्वरचित कविता- शास्वत प्रेम के प्रश्नोत्तर
जब प्रश्न हो कि प्रेम की वो मधुर भाषा क्या है?
यूँ उलझनों के परिपूर्णता की परिभाषा क्या है?
क्या ये दो शरीरों के मिलन की आवश्यकता मात्र है?
जब कुछ भी न पा सकें तो फिर आशा क्या है?
जब भूल हो कि एक हैं या दो हम हैं
जब दिन के आठ पहर भी लगे कम हैं
बिन मिले बिन सुने कुछ अनुभूतियां सी हो,
बस वही तो प्रेम है जिसमें आंख नम हैं
यूँ उलझनों के भाव बढ़ने जब लगे
ख्वाब एक एकांत का गढ़ने हम लगे
वो भाव जो हृदय से न अविराम हों
तो ज्ञात हो कि मृत्यु में सुलझने हम लगे
ये शरीर तो प्रकृति की चेतना मात्र है
नश्वरता है सत्य, कब ये देखना मात्र है
कब श्याम ने पाया राधिका को है
नाम है अमर क्यूंकि प्रेरणा मात्र है
यू जो पवनें वृक्ष से बह जाती हैं
पीछे उसके ठूंठ ही तो रह जाती हैं
वो नदी भी प्यास अपनी बुझा न सके हैं
समंदर के आगोश में खो सी जाती हैं
~ ऋषभ तिवारी ‘ऋषि’
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