कलमकारों द्वारा रचित श्रावण मास की कुछ कविताएं पढिए।
देखो आया सावन झूम के ~ शिम्पी गुप्ता
आसमान में छाए बदरा घूम के
देखो, देखो आया सावन झूम के
सावन में जब कारे बदरा आते हैं
सबके मन को बहुत रिझाते हैं
घूम-घूम के जब मँडराते हैं
आसमान में फिर ये छाते हैं
लाते हैं ये सबके संदेशे दूर के
देखो, देखो आया सावन झूम के।
कहीं किसी को ये हर्षाते हैं
प्रीत का एक राग सुनाते हैं
तो कहीं किसी को तड़पाते हैं
विरह की आग को जलाते हैं
देते हैं संदेशे विरह-मिलन के
देखो, देखो आया सावन झूम के।
मन का कोना-कोना हर्षित हो जाता है
उपवन का पौधा भी पुष्पित हो जाता है
सूखी डाली जो पल्लवित हो जाती है
रात की रानी भी गर्वित हो जाती है
कोयल भी पहुँचाती संदेशे कूक के
देखो, देखो आया सावन झूम के।
पहली बारिश ~ लक्ष्मीकांत मुकुल
मानसून की पहली बूंदों में
भींग रहा है गांव
भींग रहे हैं जुते -अधजुते खेत
भींग रही है समीप की बहती नदी
भींग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष
हवा के झोंके से हिलती
भींग रही हैं बेहया ,हंइस की पत्तियां
भींग रही हैं चरती हुई बकरियां
भींग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर
ओसारे में खड़ी हुई तुम
भींग रही हो हवा के साथ
तिरछी आती बारिश – बूंदों से
खेतों से भींगा – भींगा
लौट रहा हूं तुम्हारे पास
मिलने की उसी ललक में
जैसे आकाश से टपकती बूंदें
बेचैन होती है छूने को
सूखी मिट्टी से उठती
धरती की भीनी गंध।
बाढ़
क्यों आती है यह बाढ़
कौन है इसका जिम्मेवार
नदी नहर या सरकार
होती है कितनी तबाही
जाती है कितनों की जान
अपनों को खो देते हैं जो
काटते हैं कैसे दिन चार
भूखे रह जाते हैं पीड़ित
खाने को नहीं मिलता आहार
कौन है इसका जिम्मेवार
आम जनता या सरकार
राहत सामग्री देती है सरकार
पहुंच नहीं पाती पीड़ितों के द्वार
घपला हो जाता है अनाज
पहनने को नहीं मिलता लिबास
कौन है इसका जिम्मेवार
भ्रष्ट प्रशासन या सरकार
कितने बांध हो जाते है ध्वस्त
कितने घर हो जाते हैं पस्त
करोड़ों खर्च हो जाता है बेकार
कौन है इसका जिम्मेवार
नदी नहर या सरकार।
सावन में राधा ~ सीमांकन यादव ‘कृषक’
बैठी है राधा उदास,शिवालय की देहरी पर,
कर रही है मिन्नतें कान्हा-मिलन की,
धारण कर रही है निर्जल उपवास सोमवारी सावन के
पहनना चाहती है हरी-हरी चूड़ियाँ, उनके हाँथों से
सुनना चाहती है आनन्ददायिनी वंशी की धुन,
लेकिन सुनाई पड़ रही हैं मन्दिर की घंटियाँ, रह-रह कर
सजा रही है प्रतीक्षित कान्हा का मोर-मुकुट,
खोले हुए केश पांचाली की तरह,
मानो कान्हा से मिलकर ही संवारेगी अपना हर श्रृंगार और अपना प्रेम
चढा़ रही है दधि-माखन शिवलिंग पर कान्हा के लिए,
इतनी उपासना के बाद भी नहीं आये
उस विरहिणी के प्रिय
नहीं है कोई दिव्य-शक्ति जो पल में दर्शन ही करा दे,
वह भूल रही है कि यह द्वापर नहीं कलयुग है,
फिर भी वह है प्रतीक्षारत कई युगों से,
क्योंकि वह नहीं चाहती कि उठ जाये
समाज का विश्वास ‘निश्छल प्रेम’ से!
कान्हा ने अगर धर्म की स्थापना की है तो
राधा कर रही है पुनर्स्थापना प्रेम की,
सदियों बाद आज कलयुग में!
शिवालय की देहरी पर!
एक मौसम है जो दिखता है ~ दिलशाद सैफी
बारिस की रिमझिम बूँदे पड़ते ही
न जाने क्यों चेहरा खिलता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
एक दर्द जो ठहरा हो दिल में
वो भी बर्फ की मानिंद पिघलता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
झरोखों से आती हुई मिट्टी की
सौन्धी-सौन्धी सी महक से
क्यों हर दिल मचलता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
कुदरत भी सरोबार इसमें
हर तरफ सब्ज़ रंग बिखरता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
पड़ते ही फुहारे बारिश की
चरिंदे-परिंदे भी दिखते आनंदमग्न
दादुर, मोर, पपीहे का स्वर गुँजता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
मेंहदी की महक पायल, चूड़ियों की खनक
हर गोरी के तन पर सजता है
हाँ एक मौसम है जो दिखता है
गर्मी, सर्दी के मौसम आये-जाये
हर मौंसम में बदले इंसान का मिज़ाज
जो कुदरत का मिज़ाज बदलता है
हाँ वो एक मौसम है जो दिखता है।
पावन तीज ~ रक्षा गुप्ता
रिमझिम रिमझिम आई बरखा बहार,
सावन माह और तीज का त्योहार
सजे हाथ मेंहदी, गाएं गीत मल्हार,
झूला झूले राधा, बंसी बजाए नन्दलाल
मोहक छवि देख हरषाए गोपी-ग्वाल,
धन्य हुई धरती, पावन वृन्दावन धाम
मन में समायी छवि, निहारूँ सुबह शाम
बूँदों की सरगम- दोहे ~ श्याम सुन्दर श्रीवास्तव
प्रिय! सावन है आ गया, ले खुशियाँ उपहार।
डालों पर झूले पड़े, रिमझिम गिरे फुहार।
सावन की शुभ तीज पर, गाएँ मंगल गीत।
बूँदों की सरगम बजे, पायल का संगीत।
झूला झूलें झूम कर, भर के नई उमंग।
पुरवाई है डोलती, प्रियतम का शुभ संग।
रचा मेंहदी हाथ में, कर अभिनव श्रृंगार।
करती प्रभु से प्रार्थना, सुख वैभव विस्तार।
सुखद स्वस्थ जीवन रहे, प्रिय की उम्र हजार।
खुशियाँ नाचें झूमकर, सुखी रहे परिवार।
कुहुक-कुहुक कोयलिया बोले ~ रीना गोयल
उपवन-उपवन शाखा-शाखा, कुहुक-कुहुक कोयलिया बोले।
मीठे-मीठे गीत सुनाकर, आमों में मीठा रस घोले।
आम्र वृक्ष फल-फूल रहे हैं, हरियाली हर ओर छा रही।
वात बह रही मदिर मदिर जब, हाय!सजन की याद आ रही।
अंग-अंग पुलकित धरणी का, अरु अम्बर छाई उमंग है।
लहर-लहर आनन्दित करती, सागर में उठकर तरंग है।
पावन रुत की छटा सुहावन, डोल रहा मन पवन हिंडोले।
उपवन-उपवन शाखा- शाखा, कुहुक-कुहुक कोयलिया बोले।
अमराई में रंग- बिरंगे, भांति-भांति के पुष्प खिले हैं।
दिशा दिशा से चंचल पक्षी, करे चकित यूं यहां मिले हैं।
प्राकृतिक अद्भुत सुंदरता, सृष्टि गहन विस्तार लिए है।
मुग्ध करे यह दृश्य मनोहर, हृदय उतारे नयन दियें हैं।
स्वर्णिम इन अनमोल पलों में, चहक कोकिला इत उत डोले।
उपवन-उपवन शाखा-शाखा, कुहुक-कुहुक कोयलिया बोले।
जब सावन बरसा ~ निलेश जोशी “विनायका”
आज रात जब सावन बरसा
भीगी धरती तन मन सारा
असमंजस में बैठा हूं कब से
सावन बरसा या प्यार तुम्हारा।
घुमड़ घुमड़ घिर आए मेघा
गर्जन करते घोर गगन
कोयल बोले सावन के सुर
म्याऊं म्याऊं में मोर मगन।
बहका बहका सावन आया
खुमारी बूंदों पर छाई
भंवरें चहक रहे बागों में
डाली पर है कलियां आई।
अलबेला मौसम झूलों का
हरियाली धरती मनभावन
निखरा यौवन बिरहन का
तन में आग लगाता सावन।
भीगें हम तुम इस सावन में
सुखद पल सौभाग्य हमारा
जाने कब बरसेगा सावन
दिल की बातों को स्वीकारा।
वर्षा के प्रिय स्वर उर में करते
प्रणय निवेदन के सुख गायन
टप टप झरती बूंदे कुछ कहती
खुले रहे अब सब वातायन।
आओ झूला झूलें ~ रूचिका राय
ये देखो काली घटा घिर आई,
बरखा की बूंदें धरती पर आई,
पुलकित हुआ तन और मन,
उल्लास और उमंग भर आईं।
बागों में है झूले पड़ गये,
दिल से है दिल मिल गये,
झूला झूले लड़कियाँ सारी,
गीतों से वातावरण गूँज गये।
प्रकृति पर हरियाली छाई,
हरी चूड़ियाँ हाथों में खनकाई,
मेहंदी लगी हाथों में ऐसे,
पिया मिलन की बेला आई।
कान्हा बृज में जैसे गोपियों के संग झूले,
वैसे ही सखियाँ बागों मर झूले,
हरे रंग की आभा से दमके सब,
आओ संग मिलकर झूला झूलें।
कर सोलह श्रृंगार सुहागिनें निकली,
औघड़ भोले के पूजा को निकली,
अखंड सौभाग्यवती का वरदान मांगने,
शिव पार्वती की पूजन निकली।
सुहागनें चली करने तीज त्योहार,
निभाये प्रेम का यह व्यवहार,
माँगे आशीष सुहाग बना रहे उनका,
इस तरह से उनका निभे आचार।
आओ सखी चलें झूला झूलने,
प्रकृति के संग निभाने त्योहार।
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SWARACHIT1330A | पावन तीज |
SWARACHIT1330B | तीज- दोहे |
SWARACHIT1330D | सावन में राधा |
SWARACHIT1330E | एक मौसम है जो दिखता है |
SWARACHIT1330F | कुहुक-कुहुक कोयलिया बोले |
SWARACHIT1330G | जब सावन बरसा |
SWARACHIT1330H | आओ झूला झूलें |
SWARACHIT1400A | पहली बारिश |
SWARACHIT1408A | बाढ़ |
SWARACHIT1415A | देखो आया सावन झूम के |