सड़क कहती मजदूर से
तुम मेरे साथी हो
जिस प्रकार साथ निभाया है
ये लाइट पोल और ठीक तुम्हारे बगल वाली नाली
चलो तुम भी परमामेन्ट हो जाओ
ठीक एक दाद और खुजली की तरह
मजदूर ने अपनी आँखों से
एक आँख निकालकर कहा-
“आखिरकार कब-तक?
एक सरकार की तरह
मैं भी अनियंत्रित रहूंगा…”
कभी
जी.टी. रोड़ की सड़क
तो कभी स्ट्रीट साइट रोड़ के किनारे ही
मेरा घर बन जाता है.
लेकिन तुम जालिम हो
सभी वेश्याओं और नशे में धुत लोग
रात बारह बजे के बाद
आकर मुझसे टकराते हैं
एक चुनौती के चार चक्को की तरह
और सुबह-सुबह
म्युनिसिपलटी वाले मेरे गंदे शरीर को
फेंक आते हैं कहीं दूर-दराज वाले इलाकों में
अब बताओं मैं असुरक्षित हूँ तुमसे
सड़क धीमी गति से
अब अपना आकार
संकुचित कर मजदूर के
इस जवाब पर
निःशब्द है.
~ रोहित प्रसाद पथिक