तुम प्रीति रूप हो माँ
तुम विद्या की देवी हो, तुम वेद की ऋचा हो।
संगीत रूप हो माँ, तूम प्रीति रूप माँ।।
वीणा बजाने वाली माँ, तम को मिटाने वाली माँ।
ज्योत फैलाने वाली माँ, विद्या वर देने वाली माँ ।।
हर रूप जगत में माँ, भास तुम्हारी हैं।
हर दास त्रास में माँ, विश्वास तुम्हारी हैं।।
तुम ध्यान रूप हो माँ, गुरु ज्ञान रूप हो माँ।
तुम सिद्धि साधना में, उत्थान रूप हो माँ।।
हंस के सवारी करने वाली माँ, स्वरों की देवी हो।।
तुम हार में समायी, जीत रूप हो माँ।।
तुम गीत रूप हो माँ, तुम श्रद्धा रूप हो माँ।।
हर शीत, वसन्त ऋतु में, हर धाम रूप हो माँ।।
हर वेदना व्यथा में, आराधना में तुम हो।
हर भोर-साँझ में, तुम निशा रूप हो माँ।।
शिक्षा की ज्योत दिखाने वाली, अशिक्षा मिटाने वाली।
सम्मान रूप हो माँ, हर मान रूप हो माँ।।
माँ शारदे
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।
मेघा प्रखर दे
जड़ता तू हर ले
चेतनता से भर श्वेतांबरे
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।
मयूर वाहिनी व्योम प्रसारिणी
धवल मालिका धारिणी
आलोकित कर ज्ञान दीप
सब तिमिर नष्ट कर दें
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।
विनय प्रदायिनी, मंगलकारिणी
कला हस्त धर दे
ब्रम्हपुत्री ऋतुपति विराजिनी
प्रज्जवल प्रज्ञा वर दे
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।
ज्ञान दे दो सभ्यता का
त्राण कर दो मूढ़ता से
गा सकें वैदिक ऋचाएं
हम सभी तेरी कृपा से
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।
जयति श्वेत पद्मासने
जयति भक्तवत्सला शारदे
जयति वीणावादिनी अम्बे।।
माँ के प्रसाद में
माँ आपके प्रसाद में,
आज बुंदिया रानी इतराई है,
सभी सखियों के साथ,
वह सज-धज कर आई है,
जंगलों से उठकर,
सुबह-सुबह नहाकर,
बेर भी आज खिलखिलाया है,
माँ के प्रसाद में आज
उसने भी स्थान पाया है,
केला का तो कहना क्या
बोल रहा मेरे बिना प्रसाद में रहना क्या
मेरे समान न कोई दुजा,
मेरे बिना न कोई पूजा
सेब की लड़ाई हो रही अंगुर से,
कह रहा बिन मौसम के तुम आई हो,
तनिक भी मुझे नहीं सुहाई हो,
अभी मेरे साथ रह लो प्रसाद में,
निकाल कर पीटूँगा, मैं तुमको बाद में,
मटर की तो बात ही निराली है,
सुबह से उसने मुँह फूला ली है,
कह रहा तुनक कर,
घुम घुम कर ठुनक कर,
कोई नहीं माँ मुझे चाहने वाला,
सबके मुँह में लग गया है ताला,
बुँदिया से मुझको छाँट रहे है ऐसे,
जैसे नहीं लगे हो मुझे खरीदने में पैसे,
तुम्हीं बताओ माँ
क्या करूँ मैं, कैसे लडूँ मैं?
क्यों कल से फिर
आपके प्रसाद में चढूँ मैं!
माँ वीणापाणि तब हौले से मुस्काई,
मटर को बड़े प्यार से समझाई,
बोली मेरे लिए हो आप सभी एक समान,
भेद-भाव कभी करते नहीं भगवान,
दुनिया की आज यही दस्तूर है,
दौड़ पड़ते हैं उधर, जिधर रस भरपूर है
लेकिन सुनो तुम मेरी बात को गौर से,
कभी भी अपनी तुलना
मत करो किसी और से,
सभी का अपना महत्व,
अपनी पहचान है,
बुंदिया का कढ़ाही में,
तुम्हारा प्रकृति में स्थान है,
तुम ड़रो नहीं कभी भी
मेरे प्रसाद में आने से,
लोगों को रोको नहीं
अभी ‘रस’ में जाने से,
यह रस क्षणिक है, टिकता नहीं है,
जो ‘सत्य’ है वह लोगों को दिखता नहीं है!
जय माँ सरस्वती
श्रीमुख जन्मी
श्रवणविद्या दात्री
वीणापाणि माँ
विद्या की देवी
तुम वसुधारिणी
हो चतुर्भुजा
श्रुति की ज्ञाता
अज्ञान विनाशक
हे हंसासना
चन्द्रवंदना
नवदुर्गा, मंगला
महाकाली तुम
मोक्षदायिनी
जय हो माँ तुम्हारी
हे शुभप्रभा।
वीणावादिनी
वीणावादिनी, हंसवाहिनी
ये तुम्हारे ही तो नाम हैं
विद्या की देवी हे सरस्वती
तुम्हें हम सभी का प्रमाण है।
तुम सहज सम्भाव हो
तुम सृजन और काव्य हो
तुम विश्व वीणावादिनी
हम छंद और विराम हैं।
तुमसे ही लय, तुम ही ताल हो
तुम सुर और स्वर संघात हो
तुम निखिल ब्रह्म निनादिनी
तुममें ही सब निष्काम हैं।
विद्या की देवी है विश्व की
विद्या की देवी है वरदायिनी
तुम्हें हम सभी का प्रणाम है
तेरी सदा ही जय हो
जय माँ जय जय माँ,
वीणा वाली माँ तेरी सदा ही जय हो।
ज्ञानदायनी माता तुम हो
विद्या की कण कण तुम हो
अज्ञान रूपी तम करती तुम क्षय हो,
हे शारदा भवानी माँ, तेरी सदा ही जय हो।
श्वेत वर्ण की महिमा तुम हो
कमलासन हे माँ, बुद्धि विवेक भी तुम हो
संगीत की जननी हे माँ, तुम ही सुर-लय हो,
हे सरस्वती माँ तेरी सदा ही जय हो।
असम्भव को सम्भव कर दे, हर सुफल में तुम हो
संसार में फ़ैल रहा जो वेदप्रकाश भी तुम हो
तेरी कृपा पाए उसकी सफलता तय हो,
हे हंसवाहिनी माँ तेरी सदा ही जय हो।
सरस्वती देवी
ज्ञान की आलोकिक ज्योत जलाकर
अज्ञान का तिमिर मिटा दो माँ
जगत् में फिर से जन्म लेकर
वीणा की मधुर तान सुना दो माँ
वैर द्वेष का भाव ना रहे अब कहीं
मीठी सबकी वाणी बना दो माँ
सबको सुबुद्धि का रस पिला कर
दुर्बुद्धि का विष हटा दो माँ
तुम ही तो हो जननी संगीत की
तुमसे ही सजता हर साज़ है माँ
सबको विद्या विनय का धन देकर
करती तुम संसार पर राज हो माँ
कहते हैं लक्ष्मी की चोरी हो जाती
पर विद्या नहीं चुराई जा सकती है
मैं इसलिए मानती हूँ खुद को धनश्री
मेरे रोम रोम में माँ बुद्धिदात्री बसती है
एक पुकार मेरी भी सुन लो हे शारदे!
आकर मेरे अंतर्मन में बस जाओ ना
बीच भंवर में फंसी मेरी नैय्या को
हे! माता अब तुम ही पार लगा ना