SEPTEMBER-2020: 1) कवि कैसे बनते हैं ~ कलमकार सुभाष चन्द्र ‘सौरभ’ • 2) मै हिन्दी ~ कलमकार वर्षा यादव • 3) मौत ~ कलमकार सरस्वती शर्मा (सुबेदी)
१) कवि कैसे बनते हैं
एक दिन बात-बात में पता चला कि
सामने वाला कवि है
अचानक मन में सवाल आया
कवि कैसे बनते हैं
कविता कैसे लिखते हैं
पूछ बैठा कवि से
जो सवाल मन में थे
इतना दिमाग कहां से लाते हो
हर विषय पर लिखते जाते हो
विधाता ने दिमागदार बनाया
तभी हर विषय पर पैनी नजर रखते हो
क्या क्या कल्पना करते हो
बडे़ बुद्धिमान लगते हो
सुनकर मेरे सवाल कवि मुस्कुराया
बड़े प्यार से अपने पास बैठाया
तुम्हारे सवालों के जवाब नहीं है मेरे पास
लम्बी श्वांस लेते हुए फरमाया
मैं नहीं कवि और न ही
कविता लिखता हूँ
ना दिमाग, ना बुद्धि
ना बुद्धिमान बन पाया …
पर भला हो विधाता का
उसने मुझे हृदयवान बनाया
जिस विषय पर ,जिस घटना पर
मेरे हृदय में जैसे भाव पनपते हैं
वो कल्पना नहीं, हैं हृदय के भाव ही
जो पा सहारा कलम का
कागज पर साकार उतरते हैं
दिमागदार होता तो शायद
मनोभावों को भी तोलता
शायद चाटुकारिता में ही बोलता
हृदयवान हूँ इसलिए कर्णकटु भी बोलता हूं
पर प्रत्येक भाव को
हृदय तराजू तोलता हूँ
फिर जो सत्य ‘सौरभ’हो वही बोलता हूँ
सुन कवि की बात
मुझे हुआ अहसास
कवि कल्पना नहीं
हृदय के सच्चे भाव लिखता है
दूसरों के दु:ख देख सिसकता है
दूसरों के सुख देख थिरकता है
अन्याय देख वाणी से रोद्र रूप धरता है
प्राणी हित नये – नये रूप
अपने शब्दों से धरता है
हृदय उदगारों से ही
सहृदय ही कवि बनता है
हृदय नहीं तो भाव नहीं
भाव नहीं तो कवि नहीं
कवि नहीं बनता है
कविता नहीं बनती है
हृदयवान की संवेदना ही
कवि की कविता बनती है
संवेदना से ही कवि बनता है।
२) मैं हिन्दी
मै हिन्दी इस देश की भाषा संस्कृत से मै उपजी हूं।
पुष्प की अभिलाषा गोदान उपन्यास कहानी बनती हूं।।
साहित्य सृजन है मुझसे देखो अपनी बात मै रखती हूं।
मीठी मीठी प्यारी प्यारी बोली में ढल जाती हूं।।
स्वर है मेरा सुन्दर मुखड़ा व्यंजन मेरे अंग बने।
मात्राओं के आभूषण से हां मै सजती संवरती हूं।।
खूब सजाया खूब संवारा मुझको लेखक कवियों ने।
भावों के सुन्दर मोती बन कर मै काग़ज़ पे उतरती हूं।।
यूं तो मेरे नाम से जलधी हिंद महासागर कहलाता है।
किन्तु कवियों की कविता में गागर में सागर भरती हूं।।
हिन्दी से हिन्द, हिन्दुस्तानी और हिंदुस्तान है।
संस्कृत मेरी जननी है मै उसकी संतान हूं।।
भारत मां की आवाज़ हूं मै कहानी कविता संवाद हूं।
मन के भावों को सुर में सजाती मै वो सुन्दर साज हूं।
३) मौत
जब गिरती है मौत
आसमानो से टकराते हुए
अपनो के सिर पर
तब लगती है जिन्दगी
एक मासुमियत ही तो है
अपना कोई गुजरता
मौत के जंजीरों को
गले मे बाँधकर
हम रोकर समेटते मन को
तब लगती है जिन्दगी
एक वैराग्य ही तो है
जले हुए शरीर से
निकले हुए धुँए
अपनो का प्यार लाश की
बेरुखी मे खाक बनकर उडता है
तब लगती है जिन्दगी
सिर्फ धुँआं ही तो है
शरीर के टुकडे जलते हुए
अरमानों को बादल मे सिसकते हुए
देखा है इन आँखो ने
अपनो का प्यार धुँएं के गुबार मे
बिखरते हुए
तब लगती है जिन्दगी
हवाओं के जैसे एक
झोका ही तो है
वक्त मोहताज नही किसी का
भरोसा नही शरीर का
जब मौत औरों को आती
हम मौत के घाटियो मे उतरते नही
जब मौत अपने मे हो
तब लगती है जिन्दगी
मिट्टी के समान ही तो है
कितना मुशकिलें है
जिन्दगी और मौत समझना
यमराज गुमचुप से आए
चुपके से लेकर
कितने अपनो को
बेगाने बनाकर
तब लगती है जिन्दगी
बन्दगी ही तो है
मुकम्बल ए जिन्दगी
एक बार जीने के लिए
हजार बार मरना पडता यहाँ
तब लगती है जीवन और मौत के
दरमियाँ तडप ही तो है ।।