कवि मुकेश अमन के रचना “आवारा सांड” काव्य संग्रह से एक कविता प्रस्तुत है, जिसका शीर्षक है- सुलगते सवाल।
तुम्हारी निष्ठुर हंसी ही,
आज हमारा,
सबसे बड़ा सवाल,
हो गई है।तुम्हारी आदाएं,
तुम्हारी चालें भी,
अब तो बड़ी कमाल,
हो गई है।।तुम दोनों में,
आज फिर,
दुःशासन बनने की
होड़ लगी है।द्रोपदी के चीरहरण का,
प्रसंग, सदियों के बाद पुनः
साक्षात् देखने की,
दौड़ लगी है।।क्यूं तुम्हें,
लगता है,
कि समाज रूपी,
द्रोपदी के चिर हरण का,
मजा ही कुछ खास है।तब आपके लिए,
जन की आवाज,
सत्य, समय,
अपने और सब के सब,
महज् और महज् बकवास है।।घरों की
कमजोर छतों पर,
बेइंतहा गति में,
बजते डीजे,
असल में,
समाज के मर्सिये लगते है।हमारे मुगालतों,
गफलतों की बदौलत,
अब सब कुछ,
गुजरे जमाने,
हाशिये लगते है।।बेखबर पिताओं की,
नादान, कमउम्र,
बेटियां जब,
घरों से,
अर्द्धरात्रि में ही,
आवारा, बेगर्ज
आशिकों के साथ,
भाग जाती है।तब तो,
गली के,
वफादार कुतोें की भी,
नींद,
जाग जाती है।।मगर न जाने क्यूं,
तुम्हारी कुम्भकरणी,
नींद में,
जरा-सा भी,
खलल नही पड़ता है।या सच का,
एक पहलू,
यह भी है कि
इन सब से,
तुम्हें कोई,
फर्क नही पड़ता है।।तुम्हें दिखाई भी,
नही देता है,
तुम्हें सुनाई भी,
नही देता है,
फिर तो यह भी,
तय है कि,
तुम्हारी मोटी चमड़ी को,
कुछ महसूस भी,
नही होता होगा।वक्त की हवाओं का,
बदला-बदला,
मिजाज,
दर्द की नदी का,
कोई एक कतरा,
तुम्हें छूता भी
नही होगा।।मुझे संशय,
सिर्फ और सिर्फ,
इस बात का है
कि
आदमी इतना भी,
मतलबी, निष्ठुर,
बेरहम्, मौका-परस्त,
अंधा, बहरा भी हो सकता है।कि कोई,
अपनी ही पीढ़ियों,
अपनों और,
सवेरे खिलने वाले,
फूलों व
अंधेरों में पले सपनों
के लिए इतने तीखे,
नुकीले, दर्दीले,
कांटे भी बो सकता है।।तुम्हारा,
इस तरह भागना,
सोते हुए भी जागना,
महज् और महज्,
खुद के लिए,
सुलगते सवाल हो गया है।सुनहरा कल,
अपनापन, रिश्ते-नाते,
तार-तार,
समाज भी अब,
धोती का रूमाल हो गया है।खैर,
वक्त,
तुम्हारे और हमारे
सबके सिर खड़ा है।जिसकी हथेली में,
हमारी किस्मत,
और तुम्हारे कल का,
फैसला पड़ा है।।वह फैसला भी,
एक दिन,
अवश्य और अवश्य,
पढ़ा जायेगा।और तुम्हें,
मजबूत कलम के सहारे,
सफेद गुनाहगार,
लिखा जायेगा।।~ मुकेश बोहरा अमन
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