ख़ुद को सुलझाने में

ख़ुद को सुलझाने में

जीवन की उलझनों में फंसे होने के कारण हम ख़ुद को सुलझाने का बहुत प्रयास करतें हैं। कलमकार हिमांशु बड़ोनी कुछ उदाहरण द्वारा इस उलझन को व्यक्त कर रहें हैं जिसमें हर कोई कैद है।

मीलों मीलों का रास्ता तय करके,
जब सागर नदी से मिलने जाता है।
तो लंबा इंतजार करवाने के बदले,
वो केवल डांट फटकार ही खाता है।

नदी कहती सागर से,
तुम अब तक कहां थे?
तो सागर कहता-
काफ़ी नदियां मिलीं मुझे मेरे मार्ग में,
तो लगा था उन सबको गले लगाने में।
पहले पूरा का पूरा उलझ गया था मैं,
अब तक लगा हूं ख़ुद को सुलझाने में!

रात की विभीषिका जब भी,
प्रत्येक मनुष्य को डराती है।
सूर्य से निकली पहली किरण,
उस डर को दूर भगाती है।

इस पर रात्रि कहती सूर्य से,
तुम अब तक कहां थे?
तो सूर्य समझाता-
काफ़ी किरणों को समेटता रहा रात भर,
वक़्त तो लगना ही था ये काया सजाने में।
पहले पूरा का पूरा उलझ गया था मैं,
अब तक लगा हूं ख़ुद को सुलझाने में।

~ हिमांशु बड़ोनी (शानू)

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