देख उन्हें सड़कों पर,
मैं व्यथित हो जाती हुं,
दशा देखकर उनकी ऐसी,
मैं लाचार हो जाती हुं।
वायरस एक प्लेन से आया,
प्लेन वाले बचे रहें,
ऐसा क्युं हर बार ही होता,
गरीब ही मरते रहे।
ऊपर वाले तु भी क्या,
गज्जब की रंग दिखाता है,
मरे हुए को मार कर ही,
शायद तु खुश हो जाता हैं।
मदद के नाम पर रोटी देकर,
फ़ोटो खुब निकालते हैं,
शर्म के मारे ऐसी रोटी,
लेने से कतराते हैं।
पेड़ के नीचे गमछे डाल कर,
भुखे ही सो जाते हैं।!
सरकार की दी हुई सुविधा,
क्या इनके लिए भी आते हैं,
मतदान के समय कहीं से भी,
पहचान पत्र बन जाते हैं।
किंतु बात हो राशन कार्ड की,
सौ बार क्युं दौड़ाते हैं,
राशन कार्ड नहीं रहने से,
मदद से वंचित रह जाते हैं।
जिसने सुंदर महल बनाया,
बेघर उनको पाती हुं,
थे मजदुरी कर पेट पालते ,
अभी मजबुर मैं पाती हुं।!
भुखे रोते बच्चों के सिर,
बोझ लिए मैं पाती हुं ,
रोटी की अब आशा खत्म है,
गांव की राह मापते पातीं हुं।
बोझ उठाये सिर के ऊपर,
पैदल चलते पाती हुं,
उनके आंखों में देख आंसु,
अपनी आंसु रोक ना पातीं हुं।
समझ नहीं आतीं ये सब तों,
प्रश्न ये कर जाती हुं,
ऐसा क्युं वायरस जिसने साथ में लाया,
उसे चैन से सोते पातीं हुं।
~ मनीषा झा