चापलूसी भी एक तरह की कला है जो हर किसी के बस की बात नहीं है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि चापलूसी कभी किसी का भला नहीं करती है। चापलूसों के व्यवहार पर कलमकार दीपिका राज बंजारा की यह कविता पढें।
कभी तेरी तो कभी मेरी करते…
क्या करे चापलूस होते ही ऐसे.।।
चालाक लोमड़ी सा होता दिमाग…
पर उल्टे दिमाग की उल्टी सोच।।
हर पल सोचे अब किसे लड़वाये…
भाई-भाई में कैसे फूट डलवाये।।
इस घर की उस घर में करते…
क्या करे चापलूस होते ही ऐसे..।।मीठी मीठी बातों से मक्खन लगाते…
अपनी भोली सूरत से बहकाते।।
इनके कारण ही घर बिखरते..
अपने अपनों से झगड़ते।।
चापलूसों से दूर ही रहना..
कभी ना इनकी बातों में आना।।
कभी इसकी तो कभी उसकी बुराई हैं करते…
क्या करे चापलूस होते ही ऐसे।।~ दीपिका राज बंजारा