बरगद का पेड़

इलाके के पुराने वृक्ष हमारी कई पीढ़ियों के हमसफ़र रहे हैं। किंतु आज आधुनिकता के चलते वे वृक्ष नहीं बचे, यदि कहीं हैं तो उनसे भी उनका हाल जानने की कोशिश करें। कलमकार राजेश्वर प्रसाद जी एक बरगद के पेड़ की अभिव्यक्ति अपनी कविता में जाहिर की है।

जब मुझमें साखें निकलने लगी थी
गांव की आबादी बढ़ने लगी थी
मैं, जब पूरा फैल गया
टोला, गांव में बदल गया
आश्रय पशु-पक्षी ने पाये
बर्षा और गर्मियों से
बचने आएं बटोही
दूर के रिश्ते के
मौत का समाचार लिए
थका बूढ़ा नाई मेरी ही
छाया में बैठा था
बैठकर चिठ्ठी पढ़वाता अनपढ़
विदा होती हुई गांव की बेटी
घर बसाने आई बहू
चिकनी मांग में भरे सिंदूर
मन में अरमान लिए
हमसे आर्शीवाद पायी
जेठ अमावस्या में
सिंदूर लगाती
बताशे चढ़ाती,गीत गाती
पंखे झलती
मैं बरगद नहीं
गांव का इतिहास हूँ
प्लेग से भागते हुए लोग
मरे हुए के शोक
देखा है, हैजे से एक ही दिन कई लाशें
देखा है मैंने, रोती-पिटती बेबा
बिलखती बूढ़ी माँ
हाय-हाय करती बहनें
सहमे हुए बाप का चेहरा
आज भी नहीं भूला हूँ
मैं बरगद नहीं
गांव का इतिहास हूँ
मैंने देखा है –
डूबती फसलें, बाढ़ की तबाही
अकाल की दरार, पड़ी हुई धरती मुआर
कटते धान,सूखे परती खेत
भूख से उदास मन लिए
बैठ जाती बालाए
मैंने देखा है
कसाई को गाँव की बैलों
को ले जाते हुए, डबडबाते
आंखों की सूरत में
गांव के किसानों को देखा है
देखी है मैंने
मैली, बदशक्ल ,फूहड
घोसला लिए बाल
माथे पर फटे आंचल
पेबंद लगी साड़ी
देखा है मैंने
लूटकुन की बेटी को
बेकहल होते
पीरसिंह के घर सेंधमारी
गांव की पार्टी बंदी
मैंने धान लूटते गोहारो को देखा
जिदा जलाते हुए देखा खलिहान में
मैं, वह दिन आज भी नहीं भूला हूँ

मैं बरगद नहीं
गांव का इतिहास हूँ
जब चतुरी चमार को अंग्रेज़ ने
मुझसे ही बांधकर मारा था
सलाम ठोकते बाबूओ को देखा था
मैंने, यह भी देखा था –
पूँछ उठाकर दौड़ते हुए बैलों को
खलिहान के बोझ में छिपकर
खेलते हुए बच्चों को
माघ की धूप में, पुआल के पौंज के पास
टांग पसारकर जुगाली करते भैंसों को
मैंने, खटोली पर चढ़कर
आए दरोगा को देखा है
मैंने देखा है –
गांव में तिरंगा लहराते
किसी ने कहा- देश आजाद हो गया
किसी ने कहा- चुनाव आ गया
फिर देखा तीन झंडे लहराते
वोट का युग आया
हर पांच वर्ष पर नेताजी गांव आने लगें
अहल्या, उद्धार के सपने जगे
कैसे कहूँ
लोगों ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया
एक साल चुनाव में
पूरा गांव अड़ गया
नेताजी से चबूतरा को गिड़गिडाया
नेताजी को, किसी ने कान में समझाया
फिर आश्वासन पूरा गांव पाया
एकमत से वोट डाला
नेता के गले में पड़ी माला
हम आश्वासन से स्फूर्त हुए
बूढ़े से जवान हुए
कल्पना में जीने लगा
फटे मन से सीने लगा
आजादी की स्वर्ण जयंती मनायी गई
इक्कीसवीं सदी की उलुल्ल कल्पनाएं
जगायी गयी
गांव बाढ़ से तबाह हुए
मेरे, सपने चूर हुए
पानी ने जड़ों को हिला दिया
मैं जमीन पर आ गया
बढ़ई ने मुझे टूकडों में बांट दिया
अब मैं जहाँ था
वहाँ, अब खाई है।

~ राजेश्वर प्रसाद


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