कलमकार स्वाति बरनवाल का मत है कि समाज के बनाए हुए रीति रिवाजों में खुद को ढाल कर अनेकों स्त्रियाँ अपनी इच्छाओं को रोक लिया करतीं हैं। उन्हें पता होता है कि यह रीतियाँ न्यायसंगत नहीं हैं फिर भी वे उनका दमन करने से डरती हैं और लोग इसे सभ्यता का नाम दे देते हैं।
कुछ स्त्रियां डरती है,
सकपकाती है,
वो तोड़ना चाहती है
पैरों में बंधी जंजीरों को,निकल कर स्वच्छंद
अपनी चारदीवारियों से,
बनाना चाहती है
खुद की पहचान,
पर क्या करें?
जाते जाते रुक जाते है उसके कदम
रखने चौखट पे,आजीवन करती है इंतेज़ार
और सीखने लगती है
समाज की बनाई रीतियां।~ स्वाति बरनवाल
हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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