बेटियाँ

बेटियाँ

बेटियाँ हमसे क्या चाहतीं हैं? क्या वह नामुमकिन है? भारत जैसे राष्ट्र जहाँ बेटियों को पूजने की प्रथा है वहाँ बेटियों को कष्ट सहना शोभनीय नहीं है। हमें स्वयं में ही कुछ बदलाव लाने की आवश्यकता है- ऐसा खेम चन्द ने अपनी पंक्तियों में जाहिर किया है।

किसको सुनाऐं और किसको बताऐं बातें हम सारी,
अपने ही उज़ाङ रहे हैं मासूम फूलों की क्यारी।
अपने ही घर में महफूज़ नहीं है हम,
चारदीवारी में घुट रहा हमारा दम।
क्यों बेटियों को मानते हो तुम बेटों से कम?

बेटियों से ही है समाज का सार
पर अपने ही कर रहे रिश्तों को तार – तार।
मैं पुछती हूँ, क्यों नहीं करते तुम अपनी सोच में सुधार ?
जन्म लेते ही समझी जाती हूँ मैं बोझ
जरा समझ तो लो समय की ओझ।
कभी जन्म देने वाली माँ ही बेटी को नहीं समझती
प्यार तो दिखलाती पर जालिम समाज के साथ है मिल जाती।
क्यों नहीं तुम्हें बेटियों की दशा पे दया आती?

“बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ” राग सरकार है खुब लगाती
क्यों नहीं फिर बेटियों के दोषियों को कठोर सजा है मिल पाती?
सीख नयीं इतिहास से तुम भी लो,
बेटों के बराबर अधिकार हम बेटियों को भी दो।
आसमान की ऊंचाई और समंदर की गहराई हमने भी मापी है
लगता तुम सभी को ये सारी बातें नाकाफी है।
आजादी की लड़ाई लडने से लेकर राष्ट्र चलाने का जज्बा है,
बाहर विश्व में झांककर देखो
प्रतिष्ठित पदों पर भी हमारा कब्जा है।
थोड़ी सोच को सींचकर दिखलाओ
बेटों के बराबर हमारा भी संसार बनाओ।
तेल छिडकर या फिर तेजाब फेंककर
हमें कब तक जलाओगे ?
ज्ञान तो बहुत देते हो ‘बेटी’ न होगी
तो आँचल फिर तुम किस कद्र पाओगे?

~ खेम चन्द

हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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