न्याय

न्याय

 

आज न्याय बहुत मँहगा हो चुका है.
यह धनपशुओं और बाहूबलियों का चेला हो चुका है.
आज न्याय की बात करना बेमानी है.
बेशर्मी और मक्कारी ही आज पूज्य है.
कैसा युगधर्म आ चला है, सत्य को जैसे लकवा मार दिया हो.
इंसाफ़ पसंद लोग इस धरती पर तो ढूढ़ने से भी नहीं मिलते.
चोरो, उच्चकों, धूर्त और चापलूस सत्ता पर काबिज हो चले है.
वह ऐनकेन प्रकारेण सत्ता बनाये रखना चाहते है.
सत्य और न्याय का दीपक बुझ चुका है.
बेशर्मी चरमोत्कर्ष पर है.
मात्स्यन्याय हो रहा है, आज जिसकी लाठी उसकी ही भैंस है.
प्रभु आपको पुनः अवतरित होना ही होगा
इस घोर अंधियारे में सत्य का सूर्य उगाना ही होगा.
तभी न्याय की राह देख रहे लोगों को न्याय मिल पायेगा.
उनके साथ तभी इंसाफ़ होगा
और दूध का दूध और पानी का पानी होगा.
सत्य की प्रत्याशा में मर रहे लोगों को बलिदान रंग लायेगा.
शेर की खाल पहने भेड़िये, सत्ता छोड़ हाशिये से बाहर होगे.
हे प्रभु! तेरे आने में देर मगर अंधेर नहीं है.
वह सत्य न्याय का सूरज अवश्य प्रकाशित होगा.
तभी न्याय और सत्य का राज्य स्थापित होगा.
ऐसा कब होगा? ऐसा कब होगा? ऐसा कब होगा?

~ डॉ. कन्हैया लाल गुप्त “किशन”

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