प्रेम को समझ पाना, परिभाषित करना और आँकना- हमारे बस की बात नहीं है। यह न तो कम होता है न ही ज्यादा, इसका अनुमान और आकलन नहीं कर सकते। प्रेम तो सिर्फ किया जा सकता है। विराट गुप्ता ने प्रेम से जुड़े अपने अनुभव और विचारों को इन पंक्तियों में लिखा है।
प्रेम घाव पक गया है,
अब है स्वेद बह रहा,
फिर भी पता नहीं क्या,
है अवचेतन मन कह रहा,
कई गहरे विशादों में,
कोई एक उपादान हो,
शायद मेरे व्यथित चित्त में भी,
छुपे कोई भगवान हों,
कोई हो जो मेरे अथाह अनुभवों का भी
कोई वचन करे,
कोई हो जो मेरे ही प्रेम को भी
यूं वहन करे,
कोई हो जो समझे व्यथा
कोई जो मेरा सहन करे,
तेरी दी हुई पीड़ा को सहने
कोई तो मेरी मदद करे,
तू ना आशा ना विश्वास तू ही,
तू ही हृदय विच्छेदन क्रिया,
तू ही मेरा भ्रम है,
कई भर्मों में घूमता,
तू कोई क्रियाक्रम है,
तू नहीं है कोई वीर सहयोगी,
तू कमजोर बोझ है,
तू निश्तेज पुंज है,
और तू ही बुझता ओज है,
जा तुझसे अब और कोई भी,
अपना मन मैं पाऊंगा,
जिसमें प्रेम भरा होगा,
मैं उसका ही हो जाऊंगा।
~ शहंशाह गुप्ता (विराट)
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