वो घर बनाते हैं, तब रहते हैं लोग मकान में
कोई उधार नहीं देता अब उनको दुकान में
क्या खबर थी उन्हें कि इतना सितम होगा
कि हम आएंगे ही नहीं अब पहचान में
ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए लोग
कर देते हैं अक्षर मिलावट सामान में
कभी-कभी रोना आ जाता है मुल्क की हालत पर
क्यों लोग इतने चूर हो जाते है अपने अभिमान में
ज़ुल्म की हदें पार हो गयी सहते सहते
फिर भी डटे हुए हैं, संघर्ष के मैदान में
सियासत में भी लोग सियासत करते हैं
भूल जाते हैं इंसान को इंसान में
~ रविन्द्र चन्द्र बधानी