राजेश्वर प्रसाद जी लिखते हैं कि धुंआ जब भी उठता है वह कोई विनाश जरूर कर देता है। उठते धुएँ से किसी घटित अनहोनी की आशंका मन में आ ही जाती है।

धुआँ, तू जब भी
मेरे पास आएं हो
किसी को जलाकर आएं हो
चिताओं को न सही
घर के चिराग से
घर जलाकर आएं हो
मैं
उन-उन घरों से निकलते
देखा तुम्हें हूँ
जिन घरों में
सास ही बहू को जलाती है

धुआँ ने कहा-
बेकार की तोहमत
मुझ पर लगाते हो
मैं तो पहले
दिल में उठता हूँ
तब दरवाजे से निकलता हूँ
मैं फूस का धुआँ नही
अब,वहाँ आग कहाँ जलती है
मैं, उन छतों का धुआँ हूं
जहाँ आदमी
जिंदा जलाए जाते हैं
मैं युवा पीढ़ियों में हूँ
हर तकलीफ में हूँ
टूटते रिश्तों में हूँ
उजड़ते घरों में हूँ
मैं ही गवाह हूँ
उन युवा बहुओं का
वरना
पड़ोस के लोग भी
आदमखोर को देखकर चुप हो जाते हैं
और, सुनोगे तुम
सब्र है तुममे
हमें अकेले कटघरे में
मत खड़ा करों
उन हवाओं को कैद करो तो सही
जो मुझे बहलाकर यहां लाई है
वह पूरब से नहीं
पश्चिम से आई है।

~ राजेश्वर प्रसाद


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