कलमकार राजेश्वर प्रसाद जी की इस कविता में पत्थर की आत्मकथा दर्शायी गई है। पाषाणयुग से आज तक पत्थर हमारे विकास को गति प्रदान कर रहा है।
मैं पत्थर हूँ ,पाषाण हूँ, शीला हूँ
मुझे किसी से गिला नहीं
मैं गवाह हूँ मनुष्य के उदय का
प्रेमियों के मिलन का
साक्षात्कार हूँ
मैं लाखों हजारों साल
अपने ही रूपों में जिया हूँ
जब चरणों में पड़ा था
उद्धार हुआ
मुझमें प्रकृति के सौंदर्य था,चिकनाई थी
जब हाथों में पड़ा तो
अनेक रूपों में ढला
कभी ताजमहल में लगाया
कभी मंदिरों में सजाया
कभी मस्जिदों में संवारा
किसी ने पूजा की,किसी ने हमें बूत कहा
किसी ने तोड़ा, किसी ने तराशा
किसी ने चौराहे पर खड़ा किया
किसी ने भावों का सुमन चढ़ाया
किसी ने आत्मा का प्रतिरूप बनाया
दुःख है, किसी ने मुझे
मेरी तरह संभलने की चेष्टा नहीं की
सबने अपनी तरह समझा
समूह में था तब पहाड़ था
टूटा तो चट्टान हुआ
लूढका तो पत्थर हुआ
खुद मैं टूटा नहीं, तोड़ा गया हूँ
मुझमें डायनामाइट लगायी
क्रशर में पीसा, भट्ठियों में झोंका
मेरी कठोरता से भी उपर
दानवी वृत्ति को साकार किया
बोरियों में बंद किया
कहां तो,
हमारे उपर कितने प्रेमियों ने
अपना नाम लिखा
टूटे ह्दय ने अपने
प्रेमियों को पत्थर दिल कहा
मैं किन-किन उपमाओं से
विभूषित नहीं हुआ
किसी ने मुझे सिर चढ़ाया
तो किसी ने उठाकर
कीचड़ में फेंका~ राजेश्वर प्रसाद