हम विकास कार्य में न जाने कितना विनाश कर देते हैं और कहते हैं कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है। कलमकार विराट गुप्ता ने लिखते हैं कि हम इन्सानों द्वारा प्रकृति को कितना कष्ट दिया जा रहा है फिर भी हम कहते हैं हम उन्नति कर रहें हैं, यह एक सत्य है।
कुछ कहे शब्द, कुछ सुने शब्द,
कुछ अनकहे, कुछ अनसुने शब्द,
प्रकृति के आलिंगन का,
कुछ चुप से मौन से शब्द,
तुम क्या सुन पाते हो?
क्या पौधों में पेड़ों में जान की
जो कीमत है,
अपने झूठे वादों झूठे शब्दों को
ऑक्सीजन बना जी पाते हो?
कितना करोगे धराशाई
उन पेड़ों और पौधों के
चुप शब्दों का?
कितना करोगे बीमार
प्रकृति को,
फफूंद बन
जो खराब कर रहे हो,
जगह जगह
कुकुरमुत्ते की तरह उग कर
अपने गंदगी से
ब्रह्मांड को गन्दा कर रहे हो।
और शब्द होते हैं की
विकास की राह में कुछ
विनाश तो होता है।~ शहंशाह गुप्ता ‘विराट’
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