भारत किसानों का देश है और किसान गाँवों में रहते हैं। हम भले ही शहर में हों किन्तु गाँव से सभी लोगों का अनूठा रिश्ता होता है। कलमकार सौरभ अज्ञानी की यह कविता सभी के हृदय में अंकित गाँव की छाप को उभारने का प्रयास कर रही है।

मै एक गाँव हूँ
अकेला अधूरा और उदास
बूढ़ों को ढोता एक बूढ़ा गाँव
मगर कभी मै भी जवान था
खूब खुशी थी खूब जवानी
बच्चे थे, थी बुढ़िया नानी
चाचा-चाची, दादा-दादी
बौराए आमों के पेंड
और सुबह की ठंडी ताड़ी
गब्बर की वो चाय दुकान
जतन कका का मीठा पान
होली का हल्ला हुडदंग
दीपावली की रोशन शाम
गिल्ली डांडा और क्रिकेट के
बने अलग थे सब मैदान
जयसिंह की दुकान के द्वार
लगती गांजे की दरबार
गांजे की भी देखी खूबी
चिलम नहीं होती थी जूठी
ना थे हिन्दू ना थे मुस्लिम
नहीं कहीं थी कोई तकरार
घर थे सबके अलग अलग
पर था वो बस एक परिवार
मगर नहीं अब वैसी रौनक
ना ही वैसी हंसी ठिठोली
नहीं कहीं कोई आवाज
बच्चे गए सब दूर दराज
हो गया मै भी अब बूढ़ा
सड़क किनारे आम सा ठूँठा
बाट जोहते बच्चों की अब
सब बूढ़ों मे सबसे बूढ़ा

~ सौरभ अज्ञानी

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