आरज़ू

आरज़ू

हम सभी की कोई न कोई ख़्वाहिश होती है, कुछ पूरी हो जाती है तो कई पूरी होने वाली होती हैं। कलमकार रज़ा इलाही ने अपनी नज्म “आरज़ू” में चंद ख़्वाहिशों का जिक्र किया है।

चाँदनी रात में मख़मली राह पर अपना भी एक सफर हो
गुल फ़रोशों की जमाअत में अपना भी एक घर हो

भुल जाएँ सारे फ़िक्र-ओ-ग़म जिन्हें देख कर
जो ख़ुशबुओं के दरीचे में अपना भी एक हमसफ़र हो

ऐसे दिलकश ख़यालों से खुद को निकालूँ कैसे
इस मदहोश दिल के संभलने की भी कोई ख़बर हो

इस हसीं ख़्वाब का सफर और कुछ देर तलक तो हो
शायद किसी सुब्ह इसकी ताबीर अपने भी एक नज़र हो

~ रज़ा इलाही

हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
https://www.facebook.com/hindibolindia/posts/428316471408864
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