वे लौट रहे है उम्मीदों का शहर छोड़कर
आंखों के दरिया का रुख़ मोड़कर।
रूखा ही सही, भुखा नहीं है कोई गाँव में
शहरों ने तो छाले दिये है पाँव में।
जिन घरों में कमरा अलग से हो सग का
उनसे भी नहीं संभला बोझ मामूली से बैग का।
जिसने एक-एक ईंट लगाई ऊंची इमारत में
उसे ही छत नहीं मिला मौसम-ए-बरसात में।
जब कालाबाजारी हो राशन की दुकानों में
तब आस दिखी है गांव के खलियानों में।
सदियों से चली आ रही, ज़माने का दस्तूर है
आपदा हो या महामारी बेबस तो मज़दूर है।
~डॉ सचिन कुमार