श्रद्धांजलि

श्रद्धांजलि

रोटी भी ये क्या क्या नहीं करवाती है,
कभी सड़क कभी पटरी पर ले जाती है।
जीते जी ना मिल सकीं वो सुविधाएं,
अब ये मृत देह हवाई जहाज से आती है।
एक कटोरी दाल तक न मिल पायी,
अब घर सरकार पाँच लाख दे जाती है।
श्रमिकों की मजबूरी को ना समझा कोई,
चहुँ ओर अब संवेदनाओं की बाढ आती है।
वो काट न पाये मजबूरी की ये जंजीरें,
मालगाड़ी से हर पीड़ा कटती जाती है।
वक्त पड़ा तो खड़े कर दिये दोनों हाथ,
भाषणों में जिनके गरीबी हिचकोले खाती है।
जरूरत होती भीड़ इकट्ठा करने की तो,
मुफ्त खचाखच बस और ट्रेन भराती है।
पटरी पर क्या मरने गए थे वे सभी,
यह सुनकर इंसानियत भी शरमाती है।
विदेशों से हवाई जहाज में मुफ्त ले आते,
मजदूरों के लिए बहुत जान पे आती है।
मजबूरी ने लील लिया उन मजबूरों को,
फिर भी कुछ बेशर्मों को दया नहीं आती है।
होता गर नजदीक चुनावों का मौसम तो,
यही सियासत उनको अपना बाप बनाती है।

~ रूपेन्द्र गौर

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