हमारा मन कभी-कभी थक हारकर कई बातें सोचने लगता है। कलमकार हिमांशु बड़ोनी उन बातों और मन के सवालों का जिक्र इस कविता में किया है। वे लिखते हैं कि एसी परिस्थितियों में क्या करूंगा मैं?
क्या करूंगा मैं?
इस स्वार्थी समाज से जुड़कर क्या करूंगा?
आगे बढूंगा तो पीछे मुड़कर क्या करूंगा?
जब कुतरे जाने हों मेरे नन्हे नन्हे पंख यहां,
तो मैं “बेचारा पंछी” उड़कर क्या करूंगा?”क्या करूंगा मैं?
इस ज़ालिम समाज में रहकर क्या करूंगा?
इसके क्रूर शोषण को सहकर क्या करूंगा?
जब सुनाई जानी हों खरी खोटी बातें मुझे,
तो मैं “मूक” कुछ भी कहकर क्या करूंगा?”क्या करूंगा मैं?
इस समाज की छाया में पलकर क्या करूंगा?
इससे कंधे से कंधा मिलाके चलकर क्या करूंगा?
जब सब नज़रअंदाज़ करते हों मेरे सारे फैसले,
तो मैं चुपचाप कड़ी धूप में तलकर क्या करूंगा?क्या करूंगा मैं?
इस समाज का अंग बनकर क्या करूंगा?
इसकी दूषित मिट्टी में सनकर क्या करूंगा?
ग़र गुमान हो सबको यहां अपने पतन पर,
तो मैं “विद्रोह” में ज़्यादा तनकर क्या करूंगा?क्या करूंगा मैं?
इस समाज के विषय में सोचकर क्या करूंगा?
नित कल्याण के नए मार्ग खोजकर क्या करूंगा?
जब हर निग़ाह में गिद्ध की झलक उभरने लगे,
तो मैं ही “अकेला” बाल नोंचकर क्या करूंगा?क्या करूंगा मैं?
इस समाज के लोगों को देख क्या करूंगा?
इनके कपटी चरित्र से नेक क्या करूंगा?
जब तोड़नी हो सब ने मेरी दौड़ती क़लम,
तो मैं “भला” इस पर कोई लेख क्या करूंगा?~ इं० हिमांशु बड़ोनी (शानू)