लाख मनाने पर भी जब कोई नहीं मानता तो हमारे मन में अनेक सवाल पनपते हैं और कुछ अच्छा भी नहीं लगता। ऐसे वक्त में प्रतीत होता है कि मानो प्रकृति ही हमसे रूठी हुई है। कलमकार विक्रम कुमार ने सवालों की छोटी सी सूची अपनी कविता में लिखी है।
ख्वाबों के सारे रंग वो झूठे हुए हैं क्यों
शय सारे मेरे नाम से रूठे हुए हैं क्यों
क्यों बहारें एक अर्से से यहां आती नहीं
ये नजारे मन को मेरे जाने क्यों भाती नहीं
बारिश में भी वो पहले सी फुहाडे़ं अब नहीं
सागर में सिर्फ लहरें हैं कोई किनारे अब नहीं
सूरज भी तप रहा है बहुत चांद भी उदास है
गगन वीरान तारे भी टूटे हुए हैं क्यों
शय सारे मेरे नाम से रूठे हुए हैं क्यों
दरख़्त सारे सूखते धरा लगे कि प्यासी है
पंछियों के मन में भी छायी एक उदासी है
ठहरी हुई हैं नदियां भी पर्वत बड़ा खामोश है
औरों को लाते होश में थे वे सभी बेहोश हैं
खुद की खबर न मिल रही बेखबर हुए हैं हम
भाग्य जाने मेरे ही फूटे हुए हैं क्यों
शय सारे मेरे नाम से रूठे हुए हैं क्यों~ विक्रम कुमार
हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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