इस वर्ष कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते तमाम कंपनियाँ, कल-कारखाने सुचारु रूप से नहीं चल रहें हैं और ऐसे में वहाँ काम करनेवाले मजदूरों की आय बंद/ठप हो गई। उन्हें किसी दूसरे विकल्प पर सोचने की आवश्यकता आन पड़ी है। हिन्दी कलमकारों ने इस समस्या को अपनी कविताओं में बताने का प्रयास किया है।
ये गरीब बहुत लाचार है
झोपड़ी में सोये लोगों की जिंदगी तबाह करना बहुत बेकार है
ये गरीब बहुत लाचार है.
हर तरफ जुल्म है हर तरफ अत्याचार है
अफसरों की रग-रग में पल रहा भ्रष्टाचार है
एक ओर संगमरमरों की ईमारत हैं तो दूसरी ओर फुस की बहार है
तीखी धूप में पत्थरों को तोड़ती जिंदगी पिंजड़े में बंद पंछी के समान है
ये गरीब बहुत लाचार है.
इनके हक और हिस्सों को हड़प जाना इन बाहुबलियों की शान है
यह कैसी करुण पुकार है जैसे लगता धाराओं के बीच मे यह मछलियों की पुकार है
जिंदगी इनकी आगे नही बढ़ती क्योंकि इनके बीच मे टूटी दीवार है
इन टूटी दीवारों को जोड़ना इन बाहुबलियों को नागवार है
ये गरीब बहुत लाचार है.
ये शिक्षित नही बन पातें क्योंकि इनके कंधों पर बोझ हजार है
फिर भी शैक्षिक प्रगति को दिखलाना इन नेताओं की झूठी शान है
ये कैसी प्रगति की पहचान है,जिसमे सिर्फ झूठ का ही भंडार है
इन नेताओं के कारण ही इनकी जिंदगी आटा चक्की के समान है
ये गरीब बहुत लाचार है.
आर्थिक मजबूती को तेज तलवार की धार बना डालों
इनकी सारी समस्याओं का समाधान कर डालों
जिंदगी इनकी हवाई जहाज नही, बल्कि रॉकेट के समान बना डालों
ऊँची अट्टालिकाओं में रहने वाले लोगों के सिर को इनके चरणों मे सलाम करवा डालों
पूरी दुनिया वालों के सामने इन्हें हर मान-सम्मान दिला डालों
क्योंकि झोपड़ी में सोये लोगों की जिंदगी तबाह करना बहुत बेकार है
ये गरीब बहुत लाचार है.
रोजगार बनाम मजदूरी
रोजगार होता हर दिन का
मजदूरी में कहाँ काम है
एक दिन जो काम मिला
फिर चार दिन आराम है
रोजगार में ना कोई चिंता
मजदूरी संग चिंता तमाम है
काम मिला तो ठीक वरना
भजना फिर राम राम है
रोजगार में होता सब अपना
मजदूरी मजबूरी का नाम है
मिल गया तो भर पेट भोजन
वरना आधे से चलाना काम है
रोजगार में है ऐशो आराम
मजदूरी में खटना सुबहो शाम
पसीने से जो मिलती कमाई
कुछ को लगता हराम है
मिलती जो रोजगार से इज्जत
मजदूर को ना मिला वो सम्मान है
परिवार की खुशियों की खातिर
बेचता हर मान सम्मान
मेहनतकश मजदूर
किस्मतं से मजबूर हैं
ये मेहनतकश मजदूर है
कितने बेबस है
जी तोड मेहनत
करते हैं
बहाते खून पसीना
रात दिन
चैन से फिर भी
नहीं जी पाते
मौसम की मार से भी
कदम नहीं ठिठकते इनके
हाथ नहीं रुकते इनके
हमारी खातिर
महल बिल्डिंगे बनाते
पर हाय री विडम्बना
जो हाथ इतनी सुन्दर
रचना रचते
इनके अपने
कोई आशियाने नहीं होते
जहाँ काम वही धाम
तीन ईंटे जोङ कर
चूल्हा बन जाता
कैसी भी आपदा हो
बाढ़ महामारी हो चाहे
सबका यही निशाना बनते
डॉट फटकारअपमान
सब सहते उफ्फ़ नहीं करते।
मेहनत से पीछे नहीं हटते
बैठ के रहना इन्हें न भाता
स्वाभिमान की रोटी खाता
मजदूर
~ मानवेंद्र प्रसाद यादव
“मासूम मानव”
कलमकार @ हिन्दी बोल India
क्योंकि मजदूर हूं मैं,
नंगें पांव चलने को, मजबूर हूं मैं
जुल्मे सितम सहने को, मजबूर हूं मैं
क्योंकि मजदूर हूं मैं।
ना राह हैं, ना थाह है
मंजिल ढूंढने को मजबूर हूं मैं
चला जाता हूं मिलों यूंही,
मंजिल पाने को मजबूर हूं मैं
क्योंकि मजदूर हूं मैं।
प्रवासी मज़दूर
यह काव्य रचना “कोरोना संक्रमण” काल के दौरान अनेक विकट व विषम परिस्थितियों से दो चार होते प्रत्येक प्रवासी मज़दूर की असहनीय शारीरिक, मानसिक व मनोवैज्ञानिक पीड़ा व मनःस्थिति को प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र है। मैं आशा करता हूं कि आप सभी सुधी पाठकों को यह रचना पसंद आएगी।
इं० हिमांशु बडोनी (शानू)
सबको छत का सुख देने वाले, तम्बू में रहने को मजबूर!
यहाॅं वहाॅं भटकते दिखे हमें, आज कुछ प्रवासी मज़दूर!
हमको अपनों से जोड़ने वाले, हैं क्यों अपने घरों से दूर!
वक़्त मिले गर कभी, तो करुण कथा ये सुनना ज़रूर!
सबको खुशी देने वाले आज रोते हैं, है ये कैसा दस्तूर!
आख़िर क्यों ऊपर बैठा वो विधाता बना है इतना क्रूर!
ये भारत है
ये भारत है,
बेबस और लाचार मजदूरों के
पैरों के खून से सना भारत
ये भारत है, हाँ वही भारत
जिसमें सुनाई पड़ती हैं
मजदूरों के बच्चों की सिसकियाँ
ये भारत है,
जिस के नक्शे पर कहीं
प्रसव पीड़ा को झेलती हुई
एक माँ के खून का लाल रंग चढ़ा है
ये भारत है, हाँ वही भारत
जिसमें सुनाई पड़ती हैं
अबोध नवजात शिशु की किलकारियाँ
जिसने अभी-अभी सड़क पर जन्म लिया है
ये भारत है,
जहाँ भूख से व्याकुल बच्चे
लंबा मीलों का सफर पैदल ही तय किए जा रहे हैं
ये भारत है, हाँ वही भारत
जहाँ नहीं दिखाई देती किसी को
मजदूर की बेबसी
जहाँ नहीं सुनाई देती
बच्चों की सिसकियाँ
और जहाँ नहीं महसूस की जाती
एक माँ की प्रसव पीड़ा
क्योंकि लोगों की आँखें
खुली होते हुए भी कुछ देख नहीं पा रही
लोगों के कान होते हुए भी
कुछ सुनाई नहीं दे रहा
ये भारत है, हाँ वही भारत
आ लौट के
आ लौट के मेरे जिगर के टुकड़े,
तू क्यूं जा बसा प्रदेश में।
अपनी माटी बुला रही तुझको,
भूत बन आया कोरोना भेष में ।
हो गई पूरी ग़र तेरी तमन्ना अमीरी की,
आज रहा तके ये नैन मां के,
दूर फसा जो तू क्लेश में॥
समेट ले अपना तानाबाना,
आ जा अपने गांव में।
चल मुसाफिर भोर भई,
न देख ये छाले पांव में।
बेतहाशा हसीन वादियां है मेरे वतन की ,
विश्राम होगा अब ठंडी छांव में॥
पलायन
ये मजदूर
रहते थे शहर
कोरोना के आते ही
बेकाम हुए
बैठे बिना काम के
भूखे बच्चे शाम के।
है आटा कम
दाल का डिब्बा खाली
चार पैसे थे पास
आज नहीं हैं
ये कैसे खाएँ रोटी
नमक भी नहीं हैं।
हाँ! बच्चे रोते
बिलखते रहते
कैसे समझाएंगे
खाना नहीं है
ये जी भी पाएंगे या
भूखे मर जाएंगे।
बाप वेबश
आज माँ लाचार है
बच्चे ताक रहे हैं
दरवाजे से
बेरोजगार सब
क्या करेंगे अब।
कल रात को
बेकाम मजदूर
मोल लाया जहर
खिला सबको
दुनिया छोड़ गया
कहानी छोड़ गया।
मजदूरों की हाय
ऐ शहर अभी तो रुक जा,
रोक ले तू मजदूरों का पलायन
यह तेरी रौनक सिर्फ तेरी नहीं,
इस रौनक में मजदूरों की जान बसी,
जिन मजदूरों ने दे दी,
अपनी आधी जीवन,
तुझको ऐसे बसाने में,
तेरे गौरव को ऐसे बढ़ाने में,
तुझे चांद की तरह चमकाने में
तू चंद महीने भी ना रख पाया,
मुश्किल की इस घड़ी में,
तुम्हें मजदूरों का साथ निभाना ना आया
मजदूरों के इस तरह पलायन में,
ना दे तू अपना इस तरह योगदान
अब भी वक्त है रोक ले तू उन्हें
वरना लग जाएगी हाय तुझेl
शहर ताश के पत्तों के महल की तरह,
तू सिर्फ ढेर बन जाएगाl
रोक ले तू उन मजदूरों को,
यह तेरा निव तुझे ही काम आएगा
ऐ शहर अब भी तो रुक जा,
रोक ले तू मजदूरों का पलायन ।
तुम भी हो मजदूर
तुम भी हो मजदूर
मैं भी हूं मजदूर
तुम भी हो मजबूर
मैं भी हूं मजबूर
है सारा जहां मजबूर
तभी तो जग में है मजदूर
खेत में है मजदूर
ताज में भी मजदूर
कुर्सी वाला भी मजबूर
रिक्शे वाला भी मजबूर
सारा जग है मजबूर
तभी तो पग-पग है मजदूर
एक लाख वाला भी मज़दूर
एक सौ वाला भी मजदूर
पर कोई किस्मत से है मजबूर
कोई कर्म से है मजबूर
दिन रात एक कर किस्मत बनाता मजदूर
पेट की खातिर पसीना बहाता मजदूर
फिर भी आधे पेट सोने को बेबस है मजदूर
तुम भी हो मजदूर
मैं भी हूं मजदूर
तुम भी हो मजबूर
मैं भी हूँ मजबूर
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