ग़लतफ़हमी हो तुम

ग़लतफ़हमी हो तुम

जब कोई समझ न आए या फिर उसकी बातों का अलग अर्थ मिले तो कहा जा सकता है कि कुछ ग़लतफ़हमी हो गई है। कलमकार गौरव शुक्ला ‘अतुल’ जी ऐसे ही कुछ भाव अपनी कविता में संबोधित करते हैं।

ग़लतफ़हमी हो तुम
ख़्वावों से बुनी, एक पेड़ की टहनी हो तुम,
संसार के सांसारिक माया से,सहमी हो तुम।

ग़लतफ़हमी हो तुम
दिखावे की जिंदगी दूर है तुमसे,
दिखावे का मुखौटा न पहनी हो तुम।

ग़लतफ़हमी हो तुम
मुख से निकले हर एक अल्फ़ाज़ की कथनी हो तुम,
लफ़्ज़ इतराते, शर्माते,
देखते है तुमको, इन सब की कहनी हो तुम

ग़लतफ़हमी हो तुम
मेरे सपने भी सयाने, हर ख़्वावों की संगनी हो तुम,
मेरी क़िस्मत से खूब मिलती हो तुम,
मेरी क़िस्मत की नयनी हो तुम

ग़लतफ़हमी हो तुम
सौ इरादों से निकली, दुआ पहली हो तुम
ग़लतफ़हमी हो तुम

– गौरव शुक्ला ‘अतुल’

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