रिश्तों को निभाने में अहम को दरकिनार कर देना चाहिए। हमारा ‘मै’ कई बड़ी समस्याओं की जङ है। एक अच्छा इंसान खुद को कभी बड़ा नहीं मानता, वह तो सबकी सुनता और प्रेम भाव रखता है।
तुम अपने मैं में लटके हो,
मैं जब जब हम बन जाता हूं,
तुम मुझे आज तक समझे नहीं,
ये मैं हर बार समझ ही जाता हूं,
तुम कहते रहते हो मैं मैं,
जब हम की बातें होती है,
जब रात में तारे आते हैं,
तो चांद की बातें होती है,
तुम अपने मैं की बात करो,
तो अपना ही बताते हो,
तुम सोते जागते से हर बार,
मुझे अपना ही गिनाते हो,
किस बात का है अभिमान प्रिये?
किस बात का ये विचार है?
अपने आपस के वचनों में,
क्यों अपने का ही अभिसार है,
क्यों बुद्धि विवेक की बातों में,
तुम रचना नई कर जाते हो,
जब रात में तारे आते हैं,
तुम चांद की बात बताते हो,
रख कलश द्वेष जीवन कल का,
तुम आज को अंगीकार करो,
ना रखो विक्षोभ का ये मन,
प्रेम- शैया तो तैयार करो,
मन भारी है अवलोकन से,
किस बात को तुम तय करते हो?
क्यों राय बना के अपनों में,
तुम प्रेम की कहानी कहते हो?
ये मन मयूर मनभावन सा,
क्यू इसका तिरस्कार करते हो?
आओ मिले अब इस थल पर,
क्यों आसमान पग धरते हो?
मन की बात कही है जब,
कुछ तो उसका आभार करो,
जीवन बड़ा कठिन है,
आओ मिलकर भाव पार करो।~ शहंशाह गुप्ता ‘विराट’
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