शस्त्र और शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान भगवान परशुरामजी

शस्त्र और शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान भगवान परशुरामजी

युग और काल से परे शस्त्र और शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान भगवान परशुरामजी

भगवान नारायण के षष्टम अवतार परशुरामजी को माना जाता है । भगवान के आवेशावतार के रूप में भी इन्हें जाना जाता है इसी कारण इनका स्वभाव अतिक्रोधी था । सृष्टि में वैदिक संस्कृति को तदवत बनाए रखने में भगवान परशुराम जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । अन्याय ,अत्याचार के की परिकाष्ठा होने पर परशु को अपना मुख्य अस्त्र के रुप में लिया ।

शास्त्र एवं शस्त्र के प्रकांड विद्वान के रुप में अमिट छवि
भगवान परशुराम जी का अवतार काल सतयुग एवं त्रेतायुग के उत्तरार्ध कालीन समय अवधि में माना जाता है । भगवान शिव से प्रदत्त परशु के कारण परशुराम नाम की विख्याति हुई । परशुराम जी अपने युग के बहुत बड़े विद्वान एवं शास्त्र ,शस्त्र के गुरु भी रहे ।

जिनकी लोकप्रियता समय और युग से परे
भगवान परशुरामजी का व्यक्तित्व धीर वीर गम्भीर एक अजेय योद्धा के रुप में हमेशा रहा । इनको अष्टचिरंजिवी के रुप मे भी पूजा जाता है । ब्राह्मण समाज मे इनके जन्मोत्सव के उपलक्ष पर तरह तरह की झांकियां भी निकाली जाती है ।

महेंद्र पर्वत पर अचल वास
पुराणों में ऐसा वर्णन आया है कि भगवान परशुराम जी ने जब 21 बार आतातायी क्षत्रियों का संहार किया तो समस्त पृथ्वी पर परशुराम जी का अधिकार हो गया था परन्तु महृषि कश्यप जिन्हें भगवान परशुरामजी का गुरु बनने का गौरव प्राप्त हुआ उन्होंने सारी पृथ्वी परशुरामजी से दान में ले ली थी। तब से लेकर भगवान परशुरामजी ज्यादातर समय महेंद्र पर्वत पर तपस्या में बिताते हैं। इनकी उपस्थिति चारों युगों में मानी जाती है । सहिंताओं के अनुसार चतुर्थ चरण में जब कलयुग की समाप्ति को 800 वर्ष शेष रहेंगे तब कल्कि अवतार भगवान परशुरामजी से महेंद्र पर्वत पर शिक्षा ग्रहण करेंगे । भगवान परशुराम जी ब्राह्मणों को सबसे ज्यादा महत्व देते थे । ब्रह्म शक्ति को तदवत बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों पर भगवान परशुराम जी का बहुत बड़ा उपकार रहा है ।

हिमाचल के कई क्षेत्रों में कलश के रुप में पूजे जाते परशुरामजी
हिमाचल प्रदेश में भगवान परशुरामजी को यज्ञ आदि बड़े अनुष्ठानों में कलश के रुप में आमंत्रित किया जाता है । इनके बगैर हर प्रकार के बड़े यज्ञ या छोटे यज्ञ अपूर्ण माने जाते हैं ।

बैशाखस्य सिते पक्षे तृतियायां पुनर्वसौ।
निशाया: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि:।।

बैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि में परशुराम जी अवतरित हुए थे । तृतीया तिथि और अक्षय तृतीया का पौराणिक दृष्टि में भी बहुत महत्व है । इस दिन से सतयुग और त्रेतायुग का आरंभ माना जाता है।

इसी दिन श्री बद्रीनारायण के पट खुलते हैं । नर-नारायण ने भी इसी दिन अवतार लिया था।
हयग्रीव का अवतार भी इसी दिन हुआ था। वृंदावन के श्री बाँकेबिहारीजी के मंदिर में केवल इसी दिन श्रीविग्रह के चरण-दर्शन होते हैं अन्यथा पूरे वर्ष भर वस्त्रों से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत युद्ध की समाप्ति तथा द्वापर युग प्रारम्भ हुआ था। पुराणों में वर्णन आया है की इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है ।सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है।

मान्यता है कि दिव्य लोक की समस्त विभूतियों का कदापि नाश नहीं होता । बल्कि उनकी उपस्थिति की अनुभूति समय समय पर किसी विरले को हो ही जाती है । वैसे ही बैकुण्डपति के आवेशावतार भगवान परशुरामजी की उपस्थिति हर युग मे पुराणों में वर्णित है ।

~ लेखक- राज शर्मा
हिमाचल प्रदेश

Leave a Reply


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.