छोटी-छोटी कहानियाँ ~ संजय रॉय

छोटी-छोटी कहानियाँ ~ संजय रॉय

१) आवारा

आवारा कुत्तों ने अपने इलाके में एक अकेली कुतिया को घेर रखा था ! अपने को असहाय घिरता देख, कुतिया जोर-जोर से भौकना शुरू किया ! उसकी आवाज़ सुन आस-पास के इलाके से बहुत सारे कुत्ते इक्कठा हो गये !

कुत्तों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक बुज़ुर्ग कुत्ते ने कहा- घबराओ नहीं बहन! शाम होने से पहले तुम्हे सुरक्षित, तुम्हारे इलाके में पहुचाना हमारा कर्तव्य है। साथ ही आवारा कुत्तों के झुण्ड से कहा-याद रखो इंसानों के के बीच हमारी पहचान वफादारी से है! इसे सुरक्षित घर जाने दो …! वरना इंसानों को अगर इस बात की भनक लगी, तो वर्तमान में नैतिक पतन का शिकार हो रहे इंसानों के बीच हमारी घोर निंदा होगी!

यह सुनते हीं आवारा कुत्ते दूम दबाकर भाग खड़े हुए !

२) संरक्षक

कोयल अपने आवाज़ पर इतराने लगी थी, उसे अपनी आवाज़ पर गुमान होने लगा था, कि मैं पक्षियों की आवाज़ में सर्वश्रेष्ठ हूँ ! एक दिन बगुले को चिढाते हुए बोली -क्यों बगुले भगत उपर से ही सिर्फ सफेद-सुंदर हो, गले से भी कोई सुरीली आवाज़ सुनाओ ! बगुला मन ही मन चिढ़ता पर कुछ बोल न पाता! हद तो तब हो गई, जब कौए को कुहू …कुहू …बोलकर दुहराने को कहने लगी! कौए ने बहुत अभ्यास किया, पर हो न सका!

वह हारकर अपने को कोसते हुए कहा- मैं तुम्हारी आवाज़ की बराबरी नही कर पाउँगा कोयल रानी, हो न हो मै पिछले जन्म में अच्छे कर्म नहीं किये हों, इस लिए मेरी आवाज़ कर्कस है। कौए को मर्माहत होता देख नीलकंठ ने कहा- निराश नही होते पगले… सबका रंग-रूप और अपनी-अपनी आवाज़ से एक मौलिक पहचान है! कोयल को शायद याद दिलाना होगा कि सिर्फ बोल ही मीठा है, इसे तो अपना घोंसला भी बनाना नहीं आता, वो अपने अंडे तुम्हारे घोसले में रखकर पालती है! इसलिए तुम हताश न हो…! तुम तो उसके पालनहार हो …! उसके संरक्षक हो …!

यह सुनते ही कोयल चुपचाप फुर्र …हो गई !

३) माँ

जब मुर्गी पहली बार प्रसव को तैयार हुई, तो मातृत्व के सारे लक्षण अपने में ढूँढ-ढूँढ कर मन ही मन बुदबुदाती – छोटे- छोटे चूजे… नन्ही सी.. प्यारी सी.. एक मेरे पीठ पर, तो दुसरे को अपनी गोद में छुपाती फिरुंगी और उन्हें भी ताने कसुंगी- सम्भालों अपने नटखट लाडले को! रात के अँधेरे में वो एक सफल माँ बन चुकी थी! सुबह जब अलसाई आँखें खुली तो अंडे गायब! वो बेचैन हो उठी थी! चारों तरफ ढूँढती हुई बरामदे में गई! कही अता-पता नहीं था! तभी रसोई घर की तरफ झांक कर देखा कि चूल्हे पर पतीले से उठती हुई भाप जिसे एक माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती हुई चूल्हे में आंच लगा रही थीं!

४) सती

जिसे हमने काली, दुर्गा, सती कहा…! मगर कभी यह नहीं सुना कि
आज काली ने अपना प्रचंड रूप लें…
धर से सर अलग कर दिया …!
अतरियां बाहर कर खून पी लिया …!
फिर धोखा हुआ सती के साथ, फिर छली गयी सीता …!

लाख खा लें छूकर कुरान-गीता, हर हाल में मिलती वहीं दुखती रग को जीता !
तेज़ाब उरेले हुए चेहरे पुरुषों का क्यों नहीं मिलता?
सती शमसान में नहीं… अब तो घर-घर दरवाजें खिडकियों में बंद हो जलती हैं और धुंआ तक नहीं उठता।

५) सिरफिरे

गोमती (गाय) हमेशा की तरह हरे-भरे घास चरने के लिए निकली थी। अषाढ़ की अंतिम तपती दुपहरी में वो देखतें ही देखतें दूर निकल पड़ी, आज ऐसे भी मन थोड़ा बेचैन था इस बेचैनी में वो अपनी सतर्कता खोते हुए एक सूखे कुएं में जा गिरी। खुद को दोषी मानते हुए वो पछता रही थी पर हौसला नहीं खोई…! कुएं का क्षेत्रफल संकीर्ण नही था और घास भी हरा-भरा तो नहीं,पर घना जरुर था वह मन ही मन निकलने की जुगाड में तरह-तरह की उपाय बुनने लगी!

पहला दिन तो घबराहट से कुछ खाया न गया! पर मरता क्या न करता दुसरे दिन वो अपनी हिम्मत और ईश्वरीय कृपा को सर्वोपरी मानतें हुए कुएं में जमे हुए घास को खा रही थीं और सोंच रही थी, “ईश्वर की इच्छा हुई तो सब कुछ ठीक हो जायगा, आज़ से अपनी खुराक बिलकुल ही कम देना होगा…! क्योंकि जो कुँए में घास है वो कितने दिनों तक खा पाऊँगी…साथ हीं कम खाने से धीरे-धीरे मेरा वज़न भी हल्का हो जायगा…! जिससे निकलने में आसानी होगा और तब तक मेरा मालिक भी मुझे खोजते हुए आ ही जायगा !”

इसी तरह आशा की किरण लियें वो सप्ताह बिता चुकी थी! लेकिन मालिक का न आना उसे साल रहा था! मालिक का इंतजार छोड़ अब कुएं से बादलों को मंडराते देख कुछ और हीं सोचने लगी थी, “वो नहीं आये तो क्या हुआ…अषाढ़ बचा हीं कितने दिन… सावन के झमाझम बारिश में कुआं भर हीं जायगा और मैं निकल कर अपने घर चली जाउंगी!” यह सब सोंच ही रही थी कि एक सिरफिरे ने फगुआ (होलीगीत) गातें हुए वहाँ से गुज़र गया ! फगुआ (होलीगीत) सुनते ही गोमती अपना धैर्य खोने लगी, असंतोष बढ़ता गया कि अभी तो फागुन ही है यानि सावन आने में पुरे छः महीने बाकी है, छः महीने का घास कहाँ से मैं लाऊँगी!”

इस तरह वो असंतोष में डूबती चली गई और एक दिन उसका प्राण-पखेरू उड़ गए…!

६) अतिक्रमण

मुद्दतों बाद किसी ने पूछा, “कैसे हैं…? आजकल दिखाई नहीं देते, कहां रहते हैं ?” मशहूर शायर फकीरा अपने शायराना अंदाज़ में ने कहा-“अपनी औकात में…!” वो सुनकर तिलमिलाए फिर झेंपते हुए कहा-“माफ़ कीजियेगा वो सब तो ठीक है, पर आजकल किसी भी मंच या कार्यक्रम में दिखाई नहीं दे रहे ? छोड़िए इन सब बातों को, अगले महीने मैं एक सांस्कृतिक कार्यक्रम करने जा रहा हूं, उसमें आप को आना होगा।” फकीरा मुस्कुराकर स्वीकृति देते हुए विदा लिया।

अगले सप्ताह मोबाइल की घंटी बजी…” पहचाना? पिछले दिनों मुलाकात हुई थी, कार्यक्रम के संबंध में बातचीत की थी। फलां तारीख को कार्यक्रम निर्धारित हुईं है। मैंने आप को कार्यक्रम का विशिष्ट अतिथि बनाने को सोच रहा था, आप सहमति दे, तो आंमत्रण-पत्र में आपका नाम प्रिंट करवा दूं।” फकीरा झेंपते हुए कहा- “कहां हम जैसे को मंच पर बिठाएंगे…समाज में अभी बड़े-बडे विद्वान्-साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी,सच्चे समाजसेवी उपेक्षित हैं उन्हें बुलाइए। उनकी उपस्थिति से मंच की महिमा बढ़ेगी। साथ ही समाज और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिलेगा।” पर इनकी बातों को हल्के में लेते हुए वे अपनी बात जारी रखी और आगे कहा-” उद्घाटन तो माननीय मंत्री जी द्वारा तय है उनसे भला क्या कहना। विशिष्ट अतिथियों में चार नाम है उन्हीं से उम्मीद है।” फकीरा ने कहा-“मैं समझा नहीं…?” “अरे आप बहुत भोले हैं, सहयोग राशि के रुप में सबसे दस-दस हजार रूपए लिए हैं, आप तो अपने है…और सुनिए … मैं आपका नाम आंमत्रण-पत्र में दें रहा हूं।” फकीरा कुछ बोल पाता उससे पहले कार्यक्रम में समय से आने को कहते हुए सम्पर्क टूट गया। अगले दिन आंमत्रण-पत्र फकीरा के हाथ में था, जिसमें दुर्दांत अपराधियों को संरक्षण देने वाले और नगर के सबसे बड़े जमाखोर व्यापारी अतिथियों में शामिल थे।

फकीरा मन ही मन कह रहा था, “ठीक हीं कहा शायर ने…”अब तो सांझ होते हीं चिराग़ बुझा देता हूं अपना दिल ही काफी है रोशनी के लिए…!”

७) गंगा

जब नाला सरांध लिए गंगा में गिरा तो पछताने लगा और कहा- क्या करुं मुझे तो यहां आकर अपराध बोध होता है। मैं तो चाहता हूं कहीं जम जाऊं कहीं थम जाऊं, पर लोग मुझे लाकर आप से जोड़ ही देते हैं।

गंगा नाले की सकुचाहट देख बोल उठी- घबराओ नहीं, मुझमें और तुझमें अब कोई फर्क नहीं रहा, पर लोगों का क्या होगा? अभी भी लोग मुझे वहीं पवित्र-पावन ‘गंगा’ ही समझते हैं। लोगों की आस्था का क्या होगा?

नाले ने कहा- मैं तो लोगों को समय-समय पर सबक सिखा ही देता हूं। याद है न पिछले वर्ष का कालाजार, निमोनिया…।
नाले का प्रतिशोध देख गंगा मुस्कुराईं और बोली- मैं पृथ्वी पर सबक सिखाने नहीं आईं हूं पगले। मैं तो जनकल्याण के लिए आई थी, पर लोग न जाने क्या-क्या उम्मीद लगाए बैठे हैं।

नाले को गंगा की उदारता देख पछतावे के आंसू छलक आए। उसने कहा- सचमुच तुम गंगा हो जगत-जननी जीवों का पालनहार। तेरी जय-जयकार हो…।

लेखक : संजय रॉय
रंगकर्मी-चित्रकार, शिवनारायण रोड,
कच्चीघाट, पटना सिटी-800008 (बिहार) 

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