मैं जब कॉलेज से घर के लिए लौट रहा था। साउथ सियालदह का नामखाना के बाद का स्टॉपेज पड़ता है उकिलेरहाट। उकिलेरहाट से मेरे कॉलेज की दूरी तकरीबन ४ किलोमीटर होगी। उकिलेरहाट से मैं शियालदह के लिए ट्रेन पकड़ा। उकिलेरहाट से मेरे घर की दूरी लगभग १५० किलोमीटर है। जिसके लिए मुझे प्रायः ४ से ५ घंटे का समय ट्रेन में ही बिताना पड़ता है। २ बार ट्रेन भी बदलनी पड़ती है। प्रायः मुझे सीट मिल ही जाती है हां जिस दिन नहीं मिलती उस दिन मुझे बहुत परेशानी होती है उकिलेरहाट से सियालदाह आने में २०० से २२० मिनट लगती है। प्रति मंगलवार को मैं 4.40 या 5.40 की ट्रैन पकड़ता हुँ। क्योंकि इधर घंटे 2 घण्टे पर एक ट्रैन मिलती है। 4.40 का ट्रैन मैं पकड़ा। जैसे ही मैं ट्रैन में उठा। खिड़की के पास वाली सीट पाना चाहता था परन्तु बोगी में ख़िडकी के पास एक कपल पहले से बैठे हुए थे । मै भी उसी के बगल में बैठ गया। ट्रेन स्टेशन से खुल चुकी थीं । ट्रेन में कई सारे भेंडर वाले खाने पीने के समान बेचने के लिए आ रहे थे ।
मैं भी मोबाइल की दुनिया में ब्यस्त हो चुका था। वो जब खिड़की के पास बैठता हूं तो प्राकृतिक नजारा देखने से जी नहीं भरता। परन्तु खिड़की के पास तो मुझे सीट मिली नहीं थी। सो क्या करता? आधुनिक दुनिया में खोता चला गया। अचानक से लड़की चिल्लाने लगीं मुझे समझ नहीं आया कि हुआ क्या? हेड फोन कान से जैसे ही निकाला धीरे धीरे सारा माजरा समझ में आने लगीं । हुआ क्या था कि लड़की की लहलहाते बाल जिसे शायद उसने आज ही शैंपू की थी। पीछे बैठे चाचा के मुख से स्पर्श कर रहे थे। और ये होना ही था। आप जिस ओर जा रहे हैं उसी तरफ बैठने के लिए सीट मिल जाए वो भी खिड़की के पास तो अपने आप में एक राजा वाली फिलिंग आने लगती है। और वो तो अपने होने वाले राजा के साथ जा रही थी।
इसलिए वह खुद को रानी समझ रही थी । उन्होंने कहा कि (चूल ट सोरिए नाओ ) अपने बाल को हटा लो मुझे लग रही है। स्लीवलेस ड्रेस पहने लड़की साथ में ब्योफ्रेंड किसको attitude/ऐटिट्यूड नहीं होगा। वैसी स्थिति में जब कोई बुजुर्ग व्यक्ति टोक दे। माथा सीधे जैसे सातवें आसमान पर चढ़ जाता है।
खैर लेकिन चाचा जी को तो तकलीफ हुई तभी ना चाचा जी बोल पड़े । वर्णा आज के बच्चों से कौन मुंह लड़ाए? वैसे भी उन्हें क्या लेना देना था उस लड़की के चूल से। हां जब तकलीफ होगी तो बोलना उचित भी है। खैर उन्होंने बोला तो लड़की को भी सुनकर अपने बाल को अपने साइड या खोपा कर लेना चाहिए था। ताकि उनको फिर से परेशानी ना हो, परन्तु लड़की को ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि मुझे वो बुड्ढा कैसे बोल दिया । झट से जवाब दी। अपने घर के बेटी को बोलिएगा । अपना दादागिरी अपने घर में दिखाइएगा यहां नहीं। अब थोड़ी सी बात थी लड़की को समझकर अपने बाल हटा लेने चाहिए थे। इतना बोलने कि क्या जरूरत थी। अब इतना सारा कुछ बोलने के बाद तो (झगड़ा या ज्यादा कुछ नहीं बोलना) चाहता वो भी बोल पड़े। ठीक इसी तरह चाचा भी बोल पड़े की कि खराब बोल्लाम (बोला) ठीक ही तो बोला। निजेर चूल ट नीजेर काचे रखो (अपने बाल अपने पास रखो) इतने में लड़की और भड़क गई । मैं तो चौंक गया ये देखकर कि वो लड़की आक्रोशित होकर तंतमाकर उस बूढ़े को मारने के लिए जाने लगी। तब तक और भी लोग बोलने लगे। उसी समय एक नशेड़ी आया समझाने कि की होइचे (क्या हुआ) किस बात का झमेला हो रहा है? मैं हैरत में पड़ गया जिसे अपना होश नहीं वो चला है समझाने । उसके बाद वह रेल में खड़े होने के लिए जो लोहे लगे रहते हैं उसे पकड़ कर उछला और नीचे गिर गया। गनीमत थी कि वह बोगी में ही गिरा। मुंह से बकबक शराब की बदबू आ रही थी। दूसरी बार जहां से मुझसे भी यह बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं भी उसके साथ जो लड़का था उसे बोला एक तो गलती इसी की है और ऊपर से यही उल्टा चिल्ला रही। चुप कराओ इसे धोरो एके (पकड़ो इसे)। तो वो लड़का उस आक्रोशित लड़की को पकड़ा और शांत कराया। चाचा बोलने लगे मारते चोले एसेचे एतो खमता (मारने चली आ रही इतना हिम्मत)। इतना सुनकर वो फिर बोलने लगीं आमी आस छिलम मारलाम ना कि? (मैं आ रही थी बस, मारी हूं क्या) इसमें गर्मी तो जैसे उसके माथे पर चढ़ी हो। फिर सभी लोगों के बोलने पर मामला शांत हुआ। वह लड़का भी उसे समझाने लगा कि तुमको इस तरह से नहीं बोलना चाहिए।
अंत में जब चचा जी को जहां उतरना था स्टेशन आ गया। जब चचा उतर रहें थे तो लड़की को महसूस हुआ कि सच में उससे गलती हुई है। वो चचा को रोककर माफी मांगी बोली सॉरी। पर तब चचा बोलते हैं कि गलती कर देने के बाद सॉरी बोल देने से क्या सब कुछ ठीक हो जाता है। निजेर माथा ठंडा राखो। चचा चाहते तो बोल सकते थे कि ठीक आचे (कोई बात नहीं) परन्तु चचा का उस लड़की को माफ ना करना मुझे उनका उचित कदम लगा।
हम फैशन के दौर में सही में अंधे होते जा रहें हैं। हम बिना नशा किए ही नशे में चूर है। ये है फैशन का नशा। ये है मोडर्निजेशन का नशा। ये है आधुनिकता का नशा। ये है सामने वाले को नीचा दिखाने का नशा। ये है खुद के गरुड़ में चूर होने का नशा। ये है खुद के आगे दूसरों को कुछ ना समझने का नशा। जब तक इस नशा से हम इस समाज को मुक्ति नहीं दिला पाते तब तक भारत के खास कर युवा अपने मार्ग से भटके हुए रहेंगे।
इस समय मुझे बचपन में पढ़ी तीन बातें में एक मुख्य बात याद आ रहा था, आप जिसे वापस नहीं ला सकते।
तीर कमान से
बात ज़बान से
प्राण शरीर से।
ट्रेन यूं ही चल रही थी। उस लड़की के चेहरे पर जो चमक थी वह ढह चुकी थी। वह अफसोस कर रही थी। परन्तु ये सीख मुझे मिल चुकी थी कि किसी को बेवजह परेशान नहीं करना चाहिए। क्योंकि तैस, अहंकार, घमंड ना किसी की रहती है ये सिर्फ आदमी को नुक़सान पहुंचाती है और दूसरे के नज़रों में खुद को नीचा दिखाती है।
~ लेखक- संतोष कुमार वर्मा “कविराज”, कोलकाता -पश्चिम बंगाल