सुमित के पाँच संस्मरण

1. चार बार का दण्ड

बचपन में कुछ बच्चे इतने शैतान होते हैं कि लगता है कि जाने उनका क्या ही होगा? वो ऊधम करते हैं, पिटते हैं और ऊर्जा इकट्ठी कर फिर सुरू हो जाते हैं। पिटाई का तरीका तो खैर अब बन्द ही हो गया है। हमारे वक्त में नायाब कुटाईयाँ हुआ करती थी और हम अपनी देह को अक्सर उन मालिशों से तैयार करवाते थे। मैं बहुत ऊधमी बच्चों में रहा हूँ मगर सिर्फ विद्यालय में। घर पर अगर आप किसी भी सदस्य से पूछेंगे तो जबाब यही मिलेगा कि इसका बचपन तो बड़ा साधारण सा बीता है और विद्यालय में मैं तूफान था। एकदम अलग ही चरित्र हो जाता था मेरा।

बात शायद नौवीं कक्षा की होगी। गणित मेरे लिये हमेशा विकराल ही रहा है और मैं अथक परिश्रम कर के भी कभी इसे समझ नहीं पाया, बस काम सा चलाता रह गया। तो हमारे जो गणित के अध्यापक महोदय थे बड़े ही मेहनती और कर्मठ व्यक्ति थे। कक्षा में पुरजोर मेहनत से पढ़ाते थे पर हम कभी गणित समझ ही नहीं पाये। गुरू जी की गल्ती नहीं थी, हम ही भागते थे गणित से। गुरू जी आते और एक अभ्यास के चार-पाँच सवाल कराते और पूरी अभ्यास घर से करने के लिये दे देते। हमें कक्षा में कराये चार सवाल समझ नहीं आते तो पूरा अभ्यास कहाँ से करते? मसलन अगले दिन पिटाई होती। कुछ होशियार बच्चे सारा काम कर लाते और हमें पिटता देख अपना मनोरंजन करते।

मैं और मेरा दोस्त रवि अक्सर ही पिटते, कभी-कभी विद्यालय जल्दी आकर किसी होशियार बालक से काॅपी लेकर काम कर लेते तो बच जाते। इसी क्रम में एक दिन मैं धड़ाधड़ काम करने में लगा था कि गणित की कक्षा का घन्टा बज गया। मेरे अभी भी दो सवाल बचे थे। मैंनें ये सोच के नहीं किये कि गुरू जी को सच बता दूंगा कि दो ही सवाल रह गये हैं तो मार नहीं पड़ेगी। गुरू जी आये और आते ही बोले, “जिस-जिस का गृहकार्य पूरा नहीं है,खड़े हो जाओ” और, लकड़ी के फुटे से चार-चार फुटे पर बच्चे दण्ड मिलने लगा। बच्चों के हाथ गर्म होने लगे और बगलों में घुसने लगे, चेहरे भी लाल होने लगे। आह,ऊह की करूण-क्रंदन से कक्षा का वातावरण गूंज गया और कक्षा का सबसे होशियार बच्चा इस सब का लुत्फ ले रहा था। रवि का नम्बर आया और उसने बेखौफ से हाथ आगे किये, प्रसाद ग्रहण किया और खुद को धन्य किया। अब बारी मेरी थी। मैंनें काॅपी आगे करते हुये कहा,”सर बस दो सवाल नहीं आये, बाकी काम पूरा है, आप देख लीजिये।” मगर मेरी रहम की उम्मीद मिथ्या निकली। गुरू जी ने तरस नहीं खाया और न कॉपी ही देखी। काम अधूरा,मतलब अधूरा और दण्ड सबके लिये एक ही। चार मुझको भी मिल गये। मैं सदमा सा खा के शान्त बैठ गया।

रवि मुझसे बोला,”क्यों भाई क्या हुआ।” मैं कुछ नहीं बोला। पर एक बात समझ आ गयी कि काम करो और पूरा न हो पाये तब भी चार ही पड़ने हैं और बिल्कुल न करो तब भी चार ही पड़ने हैं। रियायत कुछ है ही नहीं तो क्यों खामखा मेहनत की जाये, ईमानदारी से चार खाते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं। अब ये रोज का हो गया था। धीरे-धीरे यही तर्क मैंनें और रवि ने पूरी कक्षा को समझा दिया और अगले एक सप्ताह में हम कक्षा के अस्सी प्रतिशत बच्चों को दण्ड का स्वाद समझा चुके थे। अब तो हालात ये थे कि गुरू जी जैसे ही बोलते, सारे खड़े हो जाते, प्यार से हाथ बढ़ाते और अपने लड्डू खा लेते। 45 मिनट की कक्षा में गुरू जी के 30मिनट तो प्रसाद वितरण में ही रह जाते और दो ही सवाल समझा पाते।

अब एक दिन वो होशियार बच्चा मेरे और रवि के पास बैठ गया और इत्तेफाकन वो बस एक सवाल करके नहीं लाया था। पुराना इतिहास उसका बड़ा प्यारा था तो उसको पूरी उम्मीद थी कि गुरू जी उसको कुछ नहीं बोलेंगें और हम गरीबों पर वो आज करीब से हस पायेगा। तभी गुरू जी आते हैं और फुटा निकाल कर हमारी नियति निश्चिंत करते हैं। होशियार बाबू का भी नम्बर आता है और वो पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखता है। मगर ये क्या गुरू जी तो सबको एक नजर से देखते थे। धर दिये उन्होनें चार उसमें भी। भाई साहब क्या कलेजे को ठण्डक सी मिली है उस दिन हमारे को, कुछ बातें शब्दों में बयां कर ही नहीं सकते। मगर होशियार बाबू तो मारे बेइज्जती के बिलख पड़े, सुबक-सुबक के चेहरा लाल कर लिये और पूरे 45 मिनट सुबके। दिनभर मायूस रहे सो अलग। मैं और रवि आँखों से इशारा कर उसके पास पहुचें और उसका दुख बांटने लगे। लोहा गर्म था और हमने हथौड़ा मार दिया। उसका दुख बाँटते-बाँटते उसे ये समझा दिया कि देख भाई काम न करना कितना बेहतर है। तूने कुत्ते की तरह काम किया हमेशा और एक सवाल के लिये भी चार मिले, हम तो कुछ नहीं करते तब भी चार ही मिलते हैं। होशियार वो था तो जल्द ही हिसाब समझ गया।

अगले दिन जब गुरू जी ने आवाज लगाई तो ये हमारा नया नायक मुस्कुरा कर, हाथ फैलाये खड़ा था, हर दण्ड स्वीकारने के लिये। चौंकने की बारी अब गुरू जी की थी। हवायें कुछ तेज हो चुकी थी,माहौल भी गर्म था और हम तो रोज ही गर्म होते थे। बाद में बहुत बढ़िया मित्र बना वो लड़का। कालान्तर में हम सब अपने-अपने गन्तव्य तक पहुंच ही गये। मगर ढीठपने में जो मजे हैं वो कभी आगे की बैंच वाले नहीं समझ सकते।


2. मैं, आन्टी और साईकिल

कभी-कभी कुछ घटनायें अनायास ही जीवन में घट जाती हैं और हम उनके लिये जिम्मेदार भी नहीं होते तब भी जिम्मेदार मान लिये जाते हैं। अब नियति समझिये या विधि का विधान ये सब बस होना ही होता है ताकि भविष्य में जब आप इन घटनाओं को याद करें तो बस कुछ और हो न हो, आपके चेहरे पर मुस्कुराहट जरूर आ जायेगी। पवार आज ऐसी ही एक घटना का जिक्र करने जा रहा है।

मैं कक्षा पाँच में था और साईकिल चलाना सीख रहा था। मझले भईया इन दिनों मेरे गुरू बने हुये थे और ठीक से सीखाने में लगे हुये थे। पहले उन्होंने हैंडिल साधना सीखाया फिर पैडल मारना और फिर पैडल मारते हुये सामने नजर रखना। दो दिन के अभ्यास के बाद ये सब सीख गया मैं। फिर उन्होंने कैरियर से ढक्का मारते हुये और सपोर्ट करते हुये आगे बढ़ना सीखाया। अब तक मैं चलाना सीख चुका था बस साईकिल पर चढ़ना-उतरना नहीं हो पा रहा था। भईया बस बैठा देते और मैं चलाता रहता, जब थक जाता तो जोर-जोर से आवाज देता वो भाग के मुझे पकड़ते और उतार लेते। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि मैं तेजी से साईकिल चला रहा हूँ और वो बस पूरे दम से मेरे साथ दौड़ रहे हैं के कहीं मैं गिर न जाऊं। मम्मी भी मुझसे कहती कि धीरे चलाया कर वो तेरे साथ दौड़ता है, देख उसकी सांस फूल जाती है। फिर मैं धीरे चलाता।

अब ये रोज का हो गया था। भईया मुझे साईकिल पर चढ़ा देते और अपने काम में लग जाते, मैं थक के आता, वो उतार लेते। एक दिन मैं साईकिल चला ही रहा था कि एक मोड़ पर मोड़ने की इच्छा हुई जबकि रोज मैं सीधे-सीधे ही चलाता था। तो मुड़ते वक्त साईकिल थोड़ा लम्बा चक्कर लगा गयी और मोड़ के उस तरफ एक आन्टी कुछ सामान लिये जा रही थी। एकदम से आन्टी को सामने देखकर मैं घबरा गया और साईकिल से ध्यान भटक गया। मैं लगभग चीख पड़ा,”आन्टी,आन्टी,आन्टी” और कुछ नहीं बोल पाया, आन्टी जब तक सम्हलती तब तक साईकिल उनसे टकरा चुकी थी। हम तीनों धराशायी हो चुके थे। मैं,साईकिल और आन्टी। आन्टी उठी और मुझमें दो तमाचे धरते हुये बोले,”आन्टी-आन्टी,चिल्ला रहा है, ब्रेक नहीं लगा सकता था।” मैं उठा और साईकिल को खचेरते हुये घर आ गया।

अगले दो दिन मैंनें साईकिल सीधे-सीधे चलाई और ब्रेक लगाना सीखा। फिर जब मैं अपने हिसाब से ब्रेक लगाने में पारंगत हो गया तो उसी मोड़ की तरफ अपनी परीक्षा लेने चल पड़ा। बालमन अक्सर वहीं जाता है, जो काम उससे हो नहीं पाता या अधूरा रह जाता है। मैंनें जैसे ही साईकिल उस मोड़ पर मोड़ी इत्तेफाक मानिये या बदनसीबी वो आन्टी आज भी वहाँ से जा रही थी पर इस बार मैंनें साईकिल सम्हाल ली और न मैं “आन्टी-आन्टी” चिल्लाया, बिल्कुल आन्टी के पास जाकर साईड से ब्रेक लगा दी, मगर इस बार आन्टी घबरा गयी और खुद ही गिर गयी। वो उठी और फिर मुझे दो तमाचे लगाते हुये बोले,”घन्टी नहीं बजा सकता था।” मैं सर खुजाते हुये खड़ा हुआ और घर आ गया।

फिर अगले चार दिन में मैंनें साईकिल पर चढ़ना-उतरना,ब्रेक लगाना,घन्टी बजाना सब सीख लिया और मैं कैंची विधा में भी साईकिल चलाने लगा। मतलब अब मैं साईकिल के साथ स्टंट भी कर रहा था। एक हफ्ते बाद उस मोड़ने मेरे दिल को फिर पुकारा और मैं चल दिया उस ओर। इस बार मैंनें पहले साईड से साईकिल खड़ी की और मोड़ के उस तरफ चेक करके आया कि कोई है तो नहीं। कोई नहीं था, रास्ता साफ था। मैंनें साईकिल उठाई और कैंची विधा में खूब तेज चलाते हुये मोड़ी मगर ये क्या आन्टी सामने थोड़ी दूर पर थी और मैं डर गया,सारा साईकिल ज्ञान काफूर हो गया। मैं चलती साईकिल से कूद गया और साईकिल सीधी आन्टी की तरफ फुल स्पीड में जा रही थी। कल्पना तो आप कर ही सकते हो उस दृश्य की। अब आन्टी इधर-उधर हुई बहुत मगर उनका गिरना तय ही था। साईकिल थोड़ी दूर जाकर गिरी। मैं आन्टी की तरफ भागा और दो तमाचे के लिये भी तैयार था। मगर आज आन्टी ने मुझे मारा नहीं, बल्कि बाल से पकड़कर खूब घसीटा और कहती जा रही थी, ‘मैं कितना भी बचूं, तू कहीं न कहीं से साईकिल मुझमें ही मार देता है।” मैं पिट-पिटा के फिर घर आ गया और उस मोड़ से तौबा कर ली।

कालान्तर में जब मैं साईकिल लेकर उस मोड़ की तरफ गया तो पता चला वो आन्टी धोबिन थी और उसी मोड़ पर अन्दर की तरफ कपड़ो पर प्रेस करती थी। इसलिये वहीं मिल जाती थी। मैं सोच रहा था जाने कौन सा कर्ज उतारने या सिर्फ उनको गिराने ही मैं वहां जाता था। खैर गनीमत ये रही कि उन आन्टी के कभी चोट नहीं लगी, बाकि साईकिल का खौफ तो मैंनें भर ही दिया था।


3. नब्बे की प्रौढ़ता

अक्सर हम नब्बे के दशक के लोगों को लोग ज्यादा ही पुराना समझ लेते हैं जबकि हमें इस धरातल पर आये 28-29 साल ही तो हुये हैं। अरे तेईस साल तक हम शिक्षा प्राप्त करने में लगे रहे और फिर पच्चीस में नौकरी करने लगे। अब 5 साल बाद ही मुड़के पीछे देखते हैं तो जो हमसे बड़े हैं वो हमें बच्चा समझते हैं और जो छोटे हैं वो प्रौढ़ समझते हैं। उम्र छिपाने या बुरा लगने की बात नहीं कर रहा हूँ मगर जब अट्ठारह साल का लड़का जो कद-काठी में आपसा ही है जब “चच्चा राम” बोल कर अभिवादन कर जाता है तब लगता है यार जल्दी पुराने कर दिये गये हम तो।

हम तो लगातार खुद को फिट रखे हुये हैं। अक्षय के फैन जो हैं पहले से। समस्या हम लोगों के साथ ये भी है कि हम नब्बे की पैदाइश “शक्तिमान” देख कर आज भी खुश हो जाते हैं, “अलिफ लैला में सिन्दबाद जहाजी” के चार भाग हम आज भी लगातार देख सकते हैं। “मिलिन्द सोमन” को आज भी देखते हैं तो अनायास ही मुहँ से “कैप्टन व्योम” निकल जाता है। “मोगली और बल्लू” के अलावा ज्यादा कार्टून को हम जानते नहीं। नागराज, ध्रुव, भेड़िया, डोगा, भौकाल का हमें आज भी इन्तजार रहता है। “दूरदर्शन” का वो गोल वाला “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” हम 10 मिनट तक बनता देख सकते हैं। “मिले सुर मेरा तुम्हारा” हम पूरा सुर से सुर मिला के गा सकते हैं और उस गाने में “अमिताभ, जितेन्द्र, मिथुन” की एक झलक के लिये पूरा गाना सुन सकते हैं।

याद करने को अनगिनत ऐसी यादें हैं जो हम सोचने और बात करने बैठे तो समय का पता ही न चले मगर मैं बात कर रहा था अपनी कौम यानि नब्बे के दशक के प्रौढ़ होने की। हाँ तो अगर अब हमारे दाढ़ी के बाल कुछ सफेद होने लगे हैं तो हमारा पुराना होना इतना जल्दी तय नहीं था। मगर ये जो हम एकदम से समझदार या ज्ञानी की श्रेणी में आ गये हैं ना, ये सिर्फ इसलिये है क्योंकि पिछले पन्द्रह साल में जो मोबाइल और नेट क्रान्ति आयी है, इसने पूरी एक पीढ़ी को एक अत्याधुनिक बना दिया है। ये पीढ़ी इतनी तेज है कि इन्हें हमारी समझदारी, एक विशेष किस्म का डर लगता है और यही डर इन्हें ये समझने को मजबूर करता है कि ये बहुत पुराने हैं।

मसलन एक उदाहरण से समझाता हूँ कि आप कभी सोलह से बीस साल के नवांकुर से किसी मुद्दे पर बात करके देखिये। अव्वल तो वो आपकी बात से सहमत ही नहीं होगा, बहुत ज्यादा शालीन होगा तो उसी शालीनता से तर्क रखते हुये और दुनिया जहान के उदाहरण प्रस्तुत करते हुये, आपने जो ठोकरें खा-खा के ज्ञान अर्जित किया है उसको लेना ही नहीं चाहेगा। नयी पीढ़ी को हमारे अनुभव, हमारे विचार, हमारे संस्कार या हमारे काम करने का तरीका सिर्फ हमारा डर लगता है। उनको लगता है ये घरवालों के आगे झुकते हैं तो डरते हैं। उनके आगे बोलते नहीं हैं क्योंकि हम विचारविहिन है, जानकारी तो सब इन पर ही है। देखिये बेशक आधुनिकता बहुत जरूरी है और ये नयी पौध निश्चय ही काबिल बहुत है मगर हमने मतलब नब्बे के दशक के लोगों ने जिस तरह का बचपन जीया है वो हम अंतिम पीढ़ी ही थे।

हमने कभी सीखने से खुद को नहीं रोका, हमने कभी बीच में बड़ो को नहीं टोका। यही कारण है कि हम आधुनिक भी है और पुराने भी। हम अग्रेंजी भी जानते हैं और संस्कृत भी और हाँ हमें सत्तर, अट्ठत्तर, उनत्तर में से बड़ी संख्या भी पता है, मतलब हिन्दी भी आती है। आज भी हम ज्यादातर आरती धुन के साथ पूरी गा सकते हैं, संस्कृत में और ये सब ये खिलती हुई कलियाँ जब देखती हैं तो लगता है कि यार ये अलग ही पढ़ाई किये हुये हैं। बहुत पुराने हैं ये। तो मैं बस ये कह रहा हूँ हम तो स्वीकार भी कर लेंगें कि चलो इस पीढ़ियों के अन्तराल को मगर आप लोग भी तैयार रहो हमसे कुछ सीखने को क्योंकि सबकुछ गूगल पर उपलब्ध नहीं है और हर बात को सीखाने और समझाने के लिये विद्यालय नहीं होते वो अनुभवी से ही मिलती हैं।
बाकी तो नब्बे वालों को जबरदस्ती की व्यस्कता मुबारक।


4. भिखारी से भीख

हाँ तो जब मैं स्कूल से कालेज में यानि 11वीं में पहुँचा तो कौशल बाबू तो नायाब हीरे के रूप में मिल ही चुके थे मुझे और हम दोनों का अलग ही संसार बन गया था। मेरी साईकिल पर हम दोनों खूब घूमा करते थे। दो-तीन मित्र और थे हमारे जरूरत के हिसाब से, जो कि बदलते रहे पर हम स्थायी मित्र थे। हमेशा साथ। जिन्दगी आराम से कट रही थी नये विद्यालय में। समोसे-नमकीन खाते हुये कि तभी हमारा एक और मित्र “शर्मा जी ऐनक वाला” एक क्रान्तिकारी बदलाव लाया। भाई साहब ने बताया कि अगर हम विद्यालय की दीवार को फांद सके तो हम बारह से तीन बजे की फिल्म देख सकते हैं और विद्यालय तो दस से पांच का था, तो बापस भी समय से आ सकते हैं। भईया खतरों के खिलाड़ी हम सुरू से रहे हैं और नया करने की ललक तो कूट-कूट के भरी हुई थी तो ये विचार उस उम्र के हिसाब से बड़ा ही रोमांचकारी लगा।

हाँ तो पैसे के अभाव वाले हम नये रोमांचकारी रास्ते खोजने लगे, दीवार फांदने के और पांच ईंट रख के एक गुप्त रास्ता भी तैयार कर लिया। अब हम महिने में एक-दो फिल्म देख आते थे और समय से वापस आ जाते थे। जिन्दगी कितनी लाजवाब कट रही थी उन दिनों। पूरे महिने पैसे मित्र दे देते थे और महिने के अंत में जो होता था थोड़ा-बहुत हम हिसाब कर लेते थे। हम चार दोस्त आखों के इशारे से समझ जाते थे कि आज व्यवस्था बनने वाली है। कहानी का मुख्य भाग अब सुरू होने वाला है ध्यान दीजियेगा जरूर।

तो तय हुआ कि आज फिल्म देखनी है और चारों ने पूछा पैसे किसपर हैं? तो हमारे दरिया दिल कौशल बाबू पचास का नोट दिखाते हुये बोले,”मेरे पास हैं, आज मैं दिखाऊंगा सबको फिल्म।” हमें मजा सा आ गया कि कुछ पैसे हम पर भी हैं और सभी पर थोड़े-बहुत हैं तो आज तो मजा ही आ जायेगा कतई। समय से दीवार फांद के हम थियेटर पर पहुँच गये। उस समय बारह रूपये की टिकट हुआ करती थी, ये हमने हिसाब लगा लिया था कि 48रूपये होते हैं। कौशल पर 50 हैं ही तो हो गया काम। फिल्म सुरू होने में वक्त था तो हम विचार कर ही रहे थे कि क्या किया जाये तभी एक भिखारी हमारे पास आया और बोला,”कि बाबू जी, कुछ दे दो।” मैंने जेब से “आज का बादशाह कौन टाईप सोचते हुये” पांच का सिक्का उसके हाथ पर रख दिया। दोस्त वाह-वाह करने लगे और मैने भी खुद को गर्वित महसूस किया।

अभी भी वक्त था फिल्म सुरू होने में तो तय किया कि नाश्ता किया जाये, क्योंकि पैसा बहुत था हमपर उस दिन। सबने आगरा का मशहूर नाश्ता बेड़ई-सब्जी खाया और कौशल बाबू ने सबको रोकते हुये घोषणा की,” मैं दे रहा हूं पैसे।” तो फिर हम सबने एक-एक बेड़ई और खायी, भाई जो खिला रहा था। कौशल बाबू ने भुगतान किया और हम थियेटर की तरफ प्रस्थान कर गये। थियेटर पर पहुँचे तो दस मिनट थी फिल्म सुरू होने में। हमने कौशल बाबू से बोला,” ला भाई पैसे।” कौशल बाबू ने पर्स निकाला, हाँ उन दिनों कौशल के पास पर्स भी था, जिसमें किस्मत से ही पैसे हुआ करते थे और कुछ चिल्लर निकाल के मेरे हाथ पर रख दी। मैं बोला,”अबे वो पचास का नोट दे” तो कौशल बाबू बोले,”उसी में से तो ये बचे हैं, बेड़ई में दे दिये थे।” मैंनें कहा तो और भी तो होंगें तुझपर? कौशल बाबू बोले,”अरे तो और कहाँ से होगें, नाश्ता भी मैं कराऊं, फिल्म भी मैं दिखाऊं?”
हम तीनों चौंक गये।

मैं उसका पर्स छीनते हुये बोला,”ला इधर दे नाटक मत कर” और पर्स चेक किया उसमें कुछ नहीं था। मैं गुस्से में बोला,”अबे तो जब पैसे नहीं थे तो तूने मना क्यों नहीं किया?” कम नाश्ता कर लेते यार। कौशल विकट होशियार है हमेशा से, बोलता है,”कौन कह रहा है कि पैसे नहीं थे, पैसे तो थे पर हमने नाश्ता कर लिया उनका और नाश्ता फिल्म से जरूरी होता है।” हाँ बात तो तेरी सही है मगर अब फिल्म कैसे देखें? शर्मा जी ऐनक ठीक करते हुये बोले। जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ हर समस्या का समाधान हमारे कौशल पर रहता ही है। तो कौशल बाबू बोले,”अबे अपनी-अपनी जेब चेक करो, इतने पैसे तो निकल आयेंगें।” हम सबने कार्यवाही को अंजाम दिया और खूब जोर लगा के अपनी जामातलाशी खुद लेने के बाद,भरपेट खुद को निचोड़ने पर चारों मित्र 46 रूपये पर पहुँच गये और अब दो रूपये की कमी फिर भी थी। सब लोग माथा पकड़कर बैठ गये और अतिरिक्त नाश्ते जो किया था, उसको कोसने लगे।

तभी “बाबू जी कुछ दे दो” ये मीठी सी ध्वनि कानों को छू गयी और शरीर में स्फूर्ति सी आ गयी। मैं और कौशल आँखो में चमक लिये खड़े हो गये। भिखारी हमारा भाई हमें देख रहा था और हम उसे। पता नहीं किसको, किसे भीख देनी थी। मैं और कौशल आँखों में तय कर चुके थे कि क्या करना है। हमने भिखारी भईया के कन्धे पर हाथ रखा और एक तरफ ले जाकर बोले,”भाई,हम याद हैं तुझे? अभी पांच रूपये दिये थे तुझे।” भिखारी बोला,”अरे हाँ बाबूजी, कोई बात नहीं, मैं गल्ती से आ गया बापस” और जाने लगा। हम उसे रोकते हुये बोले,”भाई सुन, जो हमने तुझे पांच रूपये दिये थे, उसमें से दो रूपये दे जा यार, फिल्म के लिये कम पड़ रहे हैं। भिखारी बुरी तरह चौंकतें हुये बोला,”अरे भईया, क्या बात कर रहे हो, हद कर रहे हो आप बिल्कुल, भिखारी से भीख मांग रहे हो।” हम बोले,”कुछ भी समझ तू, तीन तू रख ले, दो से हमारा काम चला दे।” बाकी के दो मित्र समझ नहीं पा रहे थे ये भिखारी के साथ आखिर कर क्या रहे हैं?

हमने भी भिखारी को छोड़ा नहीं और वो भी सर पटकते हुये दो रूपये हमें देकर गया। हमारा इन्तजाम हो गया था, मजे से फिल्म देखी। आज मतलब निकालने को हजार निकल सकते हैं इस व्यंग्यात्मक घटना के लेकिन उस वक्त ये हमारी विजय ही थी कि हम हार नहीं मानते थे कभी जो आज तक बरकरार है।


5. फादर ही आयेंगें

पिछले दिनों दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के कारण तीन हफ्ते से बिस्तर पर ही हूँ। पहला और दूसरे हफ्ते तो कुछ दवाईयों का असर जानिये या तबियत की नासाजी कि कुछ लिख नहीं पाया। अब थोड़ा-बहुत ठीक हुआ तो कुछ सोच पा रहा हूँ तो एक किस्सा याद आया। व्यंग्य मानिये या लघुकथा मगर जब ये किस्सा याद आया तो मुख पर अनायास ही मुस्कराहट आ गयी और लगा इसे लिखना जरूर चाहिये।

हुआ यूँ कि नर्सरी से दसवीं तक की शिक्षा एक ही विद्यालय में पाकर, साइन्स साईड की तलाश में मैंने विद्यालय बदल लिया क्योंकि पहले वाले विद्यालय में साइन्स नहीं थी और मैं शहर के एक नामी विद्यालय में प्रवेश पा गया। अब जब मैं वहाँ पहुंचा तो अलग माहौल, अलग पढ़ाई का तरीका और अलग ही पढ़ाई का स्तर। एकदम नया और कॉलेज वाला वातावरण। हम एक ही खूटें से तेरह साल बंध के आये थे, एक बार घुस गये विद्यालय में तो छुट्टी होने पर ही निकले हमेशा और यहाँ लाजवाब, जब आओ और जाओ। फिर भी बंधे हुये मन को ये आजादी पसन्द नहीं आ रही थी। खैर धीरे-धीरे माहौल में रमने लगे और एक दोस्त भी बन गया कौशल, जो बाद में अजीज दोस्त बन गया और आज तक है।

तो हुआ यूं कि मैं और कौशल कक्षा में पीछे बैठकर ऊधम कर ही रहे थे कि अध्यापक महोदय ने हमें धर लिया और शारीरिक प्रताड़ना उस विद्यालय का नियम नहीं था। उनके मुंह से एक ही शब्द निकला “फादर ही आयेंगें,तभी कक्षा में आओगे तुम दोनों।” मैं हिन्दी फिल्म प्रेमी रहा हूँ प्रारंभ से और “फादर” शब्द मैंनें बस फिल्म में सुना था और मुझे लगता था फादर सिर्फ चर्च में होते हैं। ऐसा समझने का एक कारण ये भी था कि जिस पहले वाले विद्यालय में मैं पढ़ा था वहां अध्यापक सभी पारिवारिक हो गये थे। गल्ती करने पर “कुटन्त विद्या, खुदन्त पानी” के सिद्धान्त को माना जाता था तो हिसाब हमारे और गुरूजी के बीच तक रहता था बस लेकिन यहां तो कहानी अलग थी। यहाँ फादर बुलाये जाते थे, उनसे शिकायत की जाती थी और बच्चे की कमियों को बताया जाता था।

दोनों कक्षा से बाहर निकले और पेड़ के नीचे लोहे की बैंच पर बैठ गये। दोनों गहरी सोच में डूबे थे। मैंनें कौशल से पूछा कि भाई, ये फादर कौन है? और कब आयेंगें? अब कौशल हमारा जबरदस्ती का होशियार यार, समझ गया कि इसको नहीं पता। हालांकि पता उसको भी नहीं था, मगर दुनियाभर में ऐसा कोई सवाल नहीं है जिसका उत्तर कौशल बाबू पर न हो तो खुद से ही अन्दाजा लगा के बोलता है कि होते हैं यहां एक फादर जो हर मंगल को आते हैं, वो आयेंगें तभी कक्षा में घुसने देंगें। अब हम दोनों उसी बैंच पर बैठ कर काल्पनिक फादर का इन्तजार करने लगे। कमाल की बात ये थी कि कौशल बाबू अपने ही झूठ पर यकीं करके मेरे साथ बैठे रहे और मैं तो सौ प्रतिशत यकीं कर बैठा था कि “फादर ही आयेंगें।” हम सारी दूसरे विषयों की सारी कक्षाएं लेते पर उन सर की कक्षा नहीं लेते और जाकर बैंच पर बैठ जाते। ऐसा करते-करते हमें दो हफ्ते हो गये, पर “फादर नहीं आये।”

एक दिन वही गुरू जी कक्षा से निकले और हमें वहां बैठा देखकर बोले,”क्यों भाई, फादर नहीं आये?” मैं तुरन्त बोला,”नहीं सर,नहीं आये।” वो गुस्से में बोले,”क्यों नहीं आये?” मैंनें कहा,”सर हमें नहीं पता क्यूँ नहीं आये।” गुरूजी बौखला गये और गुस्से में प्राचार्य महोदय के कार्यालय की ओर बढ़ गये। सारी बात उन्होंनें प्राचार्य महोदय को बताई होगी तो उनका एक कर्मचारी हमें बुलाने आ गया। हम कार्यालय में पहुँचे तो प्राचार्य महोदय लगभग डांटते हुये बोले,” क्यों नहीं आये फादर?” हम दोनों चुप रहे। फिर वो बोले,”तुमने बताया था फादर को कि स्कूल में बुलाया है?” हमने मना कर दिया। प्राचार्य महोदय बोले,” तो कैसे आयेंगें बच्चा, फादर?” जाओ आज फादर को बता दो और परसों तक फादर मुझसे मिल लें। हम दोनों कार्यालय से बाहर निकले और मैं कौशल से मुखातिब हुआ कि भाई,”ये फादर कहाँ मिलेंगे?” कौशल कभी हार न मानने वाला योद्धा तुरन्त बोला,”अरे इन दिनों व्यस्त होगें फादर, इसलिए नहीं आये हैं मंगल को, यही स्वामी बाग में कार्यालय है उनका, मैं शाम को जाकर बता आऊंगा उन्हें। कल वो आ जायेंगें और हमारी समस्या खत्म।” मैं भी निश्चिंत हो गया।

अब शाम को घर पहुंचा तो दिमाग में वही चल रहा था कि पता नहीं कौशल जायेगा या नहीं। तो एक भईया थे जो उसी विद्यालय के पूर्व छात्र रहे थे। मैं फादर के कार्यालय का पता पूछने उनके पास गया और उनको पूरी समस्या बताई तो वो हंसते हुये बोले,”अरे पागलों, वो तुम्हारे अपने पापा,अब्बा, पिताजी को बुला रहे हैं।” मेरे तो सुनते ही जमीन खिसक गयी पैरों तले से। मैं चौकतें हुये बोला,”मतलब कोई फादर नहीं होता वहां?” वो फिर हंसते हुये बोले,”नहीं यार, अपने पापा को ले जाओ बस, काम हो जायेगा।” मैं तो घोर सदमें में था और अगले दिन कौशल को ये बताया तो वो बोला,”हाँ यार मैं भी कल स्वामी बाग में भटकता रहा पर फादर का कार्यालय नहीं मिला, चल कल अपने-अपने फादर को ही लाते हैं।” फिर हम दोनों अपने-अपने फादर यानि पिताजी को लेकर पहुँचे, तब जाकर समस्या का समाधान हुआ। कमाल के होते हैं मित्र भी।

~ सुमित सिंह पवार “पवार”

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