पापा मैं ये बीस कम्बल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाट कर आता हूँ। इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है। श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया। इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी। श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा। वहाँ सभी लोगो को उसने अपने हाथों से कम्बल उढा दिया।
हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया। श्रवण के पिता ७० साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति है और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है। बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया। किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला। आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ ना कुछ काम बताते ही रहते है। बस परेशान कर रखा है और अपने कमरे में चला गया।
रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो गए।
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इस कहानी का सार लेखक की जुबानी-
आजकल लोगो की मनोस्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि वो बहुत से काम तो लोगो की देखा देखी ही करने लगे है। अपने आप को अत्यधिक सामाजिक दिखाने की जिज्ञासा की होड़ में दिन-रात लगे रहना और अपने ही घर मे बात-बात पर अपने बड़े बुजुर्गों को अपमानित करना एक आम बात हो गयी है। आजकल गरीब लोगो की सहायता करना लोगो के लिये एक दिखावे का सामान हो गया है। थोड़ी बहुत सहायता करने के उपरांत उसका अत्यधिक बखान करना एक आम बात है।~ नीरज त्यागी, ग़ाज़ियाबाद