1) माँ-बाप और बचपन
आँखें एक जोर की आवाज के साथ खुली और देखा तो माता जी दही चलाने की मशीन चला रही है और मट्ठा बना रही है। मैंनें उठते ही माता जी को प्रणाम किया और माता जी ने प्रणाम स्वीकारा और बोली दर्द तो नहीं हो रहा। ऐसा इसलिए पूछा,”क्योकिं पिछले दिनों मेरे साथ जो दुर्घटना हुयी उसमें पैर में ज्यादा चोट आई गयी है तो कभी-कभी ज्यादा ही दर्द रहता है उसमें। खैर माता जी मेरे लिये चाय ले आयी और मैं चाय पीते-पीते ख्यालों में खो गया।
हमारे बचपन में माता जी हड़िया में जो मटके से बड़ी होती है, बड़ी सी रई डाल के दही चलाती थी और उससे से कटोरा भर के लोनी और खूब सारा मट्ठा बन जाता था फिर हम तीनों भाईयों को गिलास और कटोरा भर मट्ठा, गुड़ के साथ मिलता था। लाजवाब स्वाद होता था उसका। वो स्वाद ऐसा जीव पर चढ़ा कि जीवन में कभी भी मुझे दूध,दही,मट्ठा वैसा नहीं मिला। बाहर की चीजें तो बाहर की ही होती हैं और इन सबमें माता जी का स्नेह भी तो होता था वो तो अतुलनीय है। माँ-बाप एक बेहतर से बेहतरीन जिन्दगी देने के लिये हमारे लिये बहुत कुछ करते हैं और फिर वो ये भी चाहते हैं कि हम जब भी अपने पैरों पर खड़े हो या इस निर्मोही समाज में निकले तो मजबूत होकर निकले क्योंकि जीवन की परिस्थिति माता-पिता की तरह नहीं होती जो सीखा के परिक्षा ले, वो तो परिक्षा लेकर सिखाती हैं।
फिर हम बड़े होते हैं और घर से संघर्ष के लिये निकलते हैं और दिन-रात मेहनत करते हैं क्योंकि यही मेहनत,लगन और विश्वास तो उम्रभर सिखाया है हमारे माँ-बाप ने। इस संघर्ष में माँ-बाप साथ रहते हैं और खूब सकारात्मकता भरते हैं। एक दिन हम सफल होते हैं और निकलते हैं मंजिल की ओर। खुशियाँ अपार होती हैं और अपनी जिन्दगी,अपने कायदे और अपने फैसले पर खुश होकर निकलते हैं और जरूरत पूरी भी करते हैं खुद की। पैसा भी कमाते हैं पर जब वक्त मिलता है तब लगता है कि माँ-बाप के साथ ही जीवन स्वर्ग था। वो एक लाईन है न कि “शौक तो बाप के पैसे से पूरे होते थे,अपने से तो जरूरत ही पूरी हो पाती है।” कितना भी कमा लो आप पिताजी के उस एक रूपये को आज भी नहीं समझ सकते जो वो विद्यालय जाने पर देते थे। कितने भी बढ़िया कपड़े पहन लो पर दिवाली पर पापा द्वारा दिलवाये कपड़ो की बराबरी नहीं है। कितने भी मंहगे होटलों में खा लो,मगर माँ के हाथ के साग और घी, सोच के आज भी जीव पर पानी आ जाता है। कितना भी बड़ा घर बना लो,मगर एक कमरे में पूरा परिवार एक साथ जो रहता था वो खुशियाँ अब कहाँ है?
जीवन में हासिल तो बहुत कुछ कर ही लेते हैं मगर जो बचपन में जीवन जीते हैं उसकी बराबरी तो कभी हो ही नहीं सकती। धन्य है माँ-बाप और हमेशा उनको प्रणाम। बाकी तो माता जी बोली,”कहाँ खो गया,चाय ठण्डी हो रही है।” मैं बस मुस्कुरा के रह गया।
2) भोजन की उपलब्धता
कुछ लोगों में आदत ही होती है भोजन में कमियाँ निकालने की या ये मानिये की वो जीव के स्वाद को इतनी वरीयता देते हैं कि भोजन में थोड़ी भी कमी उन्हें उत्तेजित कर जाती है और वो अपना सन्तुलन सा खो बैठते हैं। मगर मेरा भोजन के प्रति हमेशा एक आदरणीय भाव रहा है जो न जाने कब मेरे अन्दर आ गया। मैंनें भोजन को कभी केवल अपनी जठराग्नि को शान्त करने का निमित्त मात्र नहीं समझा। मैंनें हमेशा भोजन को प्रणाम किया और अपने आपको सौभाग्यशाली समझा जो ये जायकेदार भोजन पा रहा हूँ और इसी कारण आप विश्वास मानिये अपने 29 साल के जीवनकाल में मुझे कभी भोजन की दिक्कत नहीं हुई।
जब मैं चौथी या पांचवी कक्षा में था तब हमारे विद्यालय में हमें भोजन को ग्रहण करने से पहले भोजन को प्रणाम करना बताया गया और साथ ही एक मंत्र का जाप भी बताया। मंत्र था “ओम अन्नं ब्रह्म रसो विष्णु, भोक्ता देवो महेश्वरः“। ये तब सीखाया और मैं आज भी इसे अनुकरण करता हूँ। जब तक घर पर रहा तब तक कोई दिक्कत नहीं थी। फिर मैंनें नौकरी की तलाश में शहर छोड़ा और चिन्ता थी कि खाने का क्या करूंगा क्योंकि मुझे कुछ भी बनाना नहीं आता था,तो नौकरी हमेशा ऐसी मिली जहाँ खाने की व्यवस्था हमेशा पहले से ही मिलती थी। मैंनें कभी अपनी थाली में खाना छोड़ा भी नहीं। जो मेरे आगे आ गया,प्रणाम कर चुपचाप खा लिया और उसकी हमेशा ही तारीफ की।
एक बार मैं एक कम्पनी में नौकरी पा गया। उस कम्पनी में 15 दिन की ट्रेनिंग इलाहाबाद में हुई। इलाहाबाद में तो कम्पनी की तरफ से रहने-खाने की व्यवस्था थी और उसके बाद 3 महीने की फील्ड ट्रेनिंग फिरोजाबाद में थी। अब फिरोजाबाद में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं था। इत्तेफाक ही मानिये कि उन 15 दिन की ट्रेनिंग में मेरा एक दोस्त बन गया था और मैंनें कभी उसका गृह जनपद नहीं पूछा। जब फील्ड ट्रेनिंग के जिले मिले तब भाई साहब ने बताया कि वो फिरोजाबाद के हैं और 03 महीने उस 15 दिन पुराने मित्र ने मुझे अपने यहाँ रखा। मैंनें पूरी ट्रेनिंग उसके यहाँ से की। उसने कभी मुझसे एक रूपया नहीं मांगा और मैंनें जब भी बात करने की कोशिश की वो पैसे की बात टाल देता। उसका मैं ताउम्र आभारी रहूंगा।
कालान्तर में मैं पुलिस की नौकरी में आ गया और कई बार ऐसे मौके आये कि लगा आज तो भूखे ही रह जायेंगें लेकिन अन्नदाता की कृपा मानिये, कहीं न कहीं से भोजन मुझ तक पहुंच ही जाता। कई बार चुनाव ड्यूटी में फंसे और भोजन हर बार हमें खोज लेता। मैं हर बार अपने नसीब को और भोजन को प्रणाम करता। ये भोजन का सम्मान मुझे मेरे पिताजी से भी मिला। मैंनें पिताजी को कभी भोजन लौटाते नहीं देखा बल्की पिताजी तो सब्जी की कटोरी में ही पानी भी पी लेते हैं। उनका मानना है भोजन का एक कण भी बर्बाद न हो। अभी जब कोरोनाकाल हुआ तो पुलिस की नोकरी में भोजन की दिक्कत हुई, तब हमने खुद भोजन बनाया और हमेशा बढ़िया बना। कभी श्रीमती जी फोन पर बताती,कभी माता जी सिखाती और कभी यूट्यूब महोदय। हमने खूब बढ़िया-बढिया खाना खाया।
तो भोजन की ये उपलब्धता हमेशा ही मेरे लिये लाजवाब रही और मैं कभी भूखे नहीं सोया। आप भी खुद को खुशकिस्मत मानिये जो ये थाली भर के आपके सामने समय से आ रही है, प्रणाम करिये और ग्रहण करिये।
3) यादों के झरोखों से
यादें वो हैं जो आपको जीवन देती हैं। यादें वो हैं जो हमें बीते वक्त और अपनों से मिलाती हैं। यादें ही हैं, जो अच्छी हो या बुरी हमेशा अनुभव देती हैं। अतीत के संघर्ष को बताती हैं, मुश्किल हालातों को दिखाती हैं और ये सब हमें हमारा याद रखना भी जरूरी होता है क्योंकि अक्सर यादों को लोग औकात से जोड़ देते हैं कि इसकी क्या औकात थी, वो तो अभी पनप गया है इत्यादि-इत्यादि। औकात शब्द बुरा नहीं है मगर समाज में और हमारे हिन्दी सिनेमा में इस तरह से प्रयोग हुआ है कि ये नकारात्मक छवि ज्यादा पा गया है। चलिये औकात शब्द की बात फिर कभी करेंगें फिलहाल यादों पर ध्यान देते हैं।
इन दिनों दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण वैसे भी मैं बिस्तर पर ही हूँ तो ये मेरा सौभाग्य ही मानिये कि फिर से वक्त मिला है माँ-बाबू जी के साथ बैठने का, बात करने का और अतीत के उनके संघर्ष को जानने का। अतीत की यादें या संघर्ष की सबसे अच्छी बात यही लगती है मुझे कि जब वक्त बीत जाता है और हम पीछे मुड़ के देखते हैं तो पाते हैं कि वो इतना भी कठिन वक्त नहीं था, या कठिन वक्त था भी तो वो एक गुरू की तरह था जो बहुत कुछ सीखा गया हमें। यही तो यादों की खूबसूरती है कि आप उन्हें सकारात्मक लेते हैं तो ऊर्जा मिलती है और नकारात्मक लेते हैं तो सबक मिलता है। है न नायाब?
कल जब पापा जी के पास बैठा था और उनसे बात चल रही थी तो पापा बता रहे थे कि उनके सपने में हमारी दादी जी आयी और खूब बातें हुई। आपको बता दूँ मेरे पिताजी की उम्र 63 वर्ष है और वह विद्युत विभाग से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। मेरी दादी जी का स्वर्गवास हुये तकरीबन 18 साल हो चुके हैं। मैं बस ये सोच रहा था कि पापा इसका मतलब आज भी अपनी माँ को याद करते हैं और ये मैं पापा जी से पूछ भी बैठा। पापा जी हम तीनों भाईयों में सबसे ज्यादा बात मुझसे ही करते हैं। कुछ देर शान्त बैठे रहे और बोलते हैं,”कि राजू(मेरा घर का नाम राजू है) ऐसा कोई दिन नहीं जाता,जब मैं अपने माँ-बाबूजी को याद नहीं करता। इस नौकरी और तुम्हारे भविष्य के चक्कर में मैंनें गांव छोड़ा था। गांव एक बार जो छूटा फिर छूट ही गया। माँ मुझसे कहती रही कि यहीं आजा पर नौकरी तो त्याग मांगती है न। भरसक कोशिश कर के भी मैं वापस न जा पाया।” दादी हमारी बहुत धार्मिक और महान् महिला थी। पापा जी कई बार उन्हें गांव से आगरा साथ रहने को लाये थे पर वो ठहरी गंगा भक्त तो बिना गंगा जी में नहाये या दर्शन किये वो ज्यादा रह नहीं पाती थी। उनका व्याकुल मन सूरदास जी की पंक्ति “मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पर आवै” जैसा ही था। जल्द ही वो वापस गांव चली जाती थी।
ये यादें ही तो हैं जो हमारे बड़े हमें बताते हैं और हम ध्यान से सुनते हैं व ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन वक्त बिताते हैं। यकीं मानिये जब वो यानि माँ-बाबू जी साथ बैठकर कोई किस्सा बताते हैं और खुद से ही खिलखिलाकर हसते हैं तो लगता है इससे सुखद पल क्या ही होगा, जो मैं ये सब देख पा रहा हूँ और सुन पा रहा हूँ। उनकी निस्वार्थ हंसी लाखों रुपये से ऊपर है। उनका 60 साल का अनुभव किसी किताब से नहीं मिलने वाला। सबसे बड़ी बात उनके अनुभव उनसे सुनने का मौका मिलना ही लाजवाब है। आपको लगेगा कि ये कुछ ज्यादा हो रहा है, मगर आप पारिवारिक व्यक्ति हैं और अपनी जड़ो से जुड़े रहना पसंद करते हैं तो निश्चय ही आप मेरा हर कथन, हर बात को समझ रहे होंगे।
मैं माँ के पास ही रहता हूँ ज्यादातर फिलहाल और माता जी से नाना के किस्से सुनना वाह मजा ही आ जाता है। यहाँ पर वो बात सार्थक होती है कि पिता का लगाव पुत्री से ज्यादा होता है और माँ का लगाव पुत्र से। क्योंकि मैंनें पिताजी से दादी जी और माँ से नाना जी की ही बांते सुनी है अक्सर। खैर ये मेरा व्यक्तिगत नजरिया है। मगर मैं बस इतना ही कहूंगा अपने बुजुर्गों से जुड़े रहिये, उन्हें सुनते रहिये और आशीर्वाद रूपी अनुभव लेते रहिये क्योंकि ये आप कभी खरीद नहीं पाओगे और न कोई दूसरा स्रोत ही है उन यादों का। जुड़े रहिये, सुनते रहिये, बढ़ते रहिये।
4) शान में गुस्ताखी
जीवन में एक सी घटनायें कई बार घटती हैं और हमें लगता है कि ये हमारे साथ पहले भी हो चुकी हैं मगर याद नहीं आता। प्रारम्भ से ही लेखक मन होने के कारण मुझे ज्यादातर घटनायें याद रह जाती हैं। जब भी खाली बैठता हूँ फिर सोच के सागर में डूबता हूँ तो यादों के वो मोती मिलते हैं और मैं एक माला बुनना प्रारम्भ कर देता हूँ। आज पवार अपने जीवन की कुछ ऐसी ही घटनाओं का जिक्र यहाँ कर रहा है, जिन्हें आप संयोग मानिये या मेरा स्वभाव, बस ये हो जाता है।
कक्षा तीन या चार की बात होगी। कई प्रतियोगिता हो रही थी विद्यालय में। मैम ने कई प्रतियोगिता में बच्चों के नाम लिखवा दिये। मैं अपनी धुन का बच्चा था प्रारम्भ से ही तो किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लेता था, शायद आत्मविश्वास की भी कमी थी। कुछ प्रतियोगिताएं अब भी बाकी थी पर ज्यादातर हमारी कक्षा के बच्चे उनमें भाग नहीं ले रहे थे। मैम एक दिन गुस्से में आयी और खूब डांटा पूरी कक्षा को और एक ही बात बार-बार कह रही थी, “कि अगर भाग नहीं ले सकते तो छोड़ दो मेरी कक्षा, चले जाओ यहाँ से।” जब उन्होनें दो-तीन बार ये बात कही तो मुझे लगा कि कोई सुन क्यों नहीं मैम की बात। मैंनें बैग उठाया और बाहर निकल गया। कक्षाप्रमुख मेरे पीछे दौड़ा और बापस मैम के पास लाया,मुझे उस दिन खूब मार पड़ी। बालमन समझा नहीं कि क्यों मार रही थी मैम?
फिर जब मैं दसवीं कक्षा में था तो एक सख्त गुरू जी किसी कारण से सभी बच्चों को सजा दे रहे थे। वो बारी-बारी सबको मारते जा रहे थे और कहते जा रहे कि,”चुंगी का स्कूल समझ रखा है क्या, काम नहीं करना तो भागो यहाँ से,निकल जाओ मेरी कक्षा से।” फिर नये लड़के को मारते और यही दोहराते। मेरे दिमाग में फिर वही नाटक कि आखिर कोई क्यों नहीं सुन रहा है इनकी। जैसे ही वो मेरे पास आये और वही सब बोला, मैंनें बैग उठाया और निकल गया। इस बार मास्साब ने दौड़कर मुझे पकड़ा और कक्षा की परिधि में लाकर ढंग से कुटाई की। मैं तो सिर्फ उनकी बात मान रहा था।
अब मैं बी.एस.सी. में आ चुका था और द्वितीय वर्ष में था। एक मैम बड़ी ही तन्मयता से पढ़ा रही थी। जाने कैसे मुझे झपकी सी लगने लगी। मैंनें खुद को बहुत सम्हाला मगर बार-बार आँख झपक ही गयी और ये उन मैम ने देख लिया। वो वैसे भी गुस्से वाली थी और इस बार बुरी तरह भड़क गयी। मुझपर चिल्लाने लगी और एक ही बात बोली कि,”नहीं पढ़ना तो निकल जाओ मेरी क्लास से।” मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और मैंनें बैग उठाया निकल गया क्लास से। मगर इस बार किसी ने मुझे नहीं रोका और मैं कैन्टीन में चला गया। बाद में उन मैम ने मुझे खूब सुनाया था, ऐसा क्लास के बच्चे बता रहे थे। पर मैंनें तो सिर्फ उनकी बात मानी थी।
ये सब होता रहा और कालान्तर मैं पुलिस विभाग में आ गया और क्राइम ब्रांच में काम कर रहा था। एक दिन एस.पी.क्राइम सर मीटिंग ले रहे थे और शहर में क्राइम पर समीक्षा व नये उपायों पर विचार कर ही रहे थे कि किसी बात पर नाराज हो गये और एकदम से चीखते हुये बोले,”निकल जाओ इस कमरे से तुम सब लोग।” मेरे कदम में ऊर्जा सी आयी और थोड़ा सा हिला मगर मैंनें अपने दोनों तरफ देखा तो पाया मुझसे सीनियर लोग हिले भी नहीं थे अपनी जगह से। तो मैं रूक गया और फिर बाकी की बात उस दिन समझ आयी मुझे कि ऐसे कोई कहता है तो उसका साफ मतलब होता है कि,”रूक यहीं और अभी तो मैं तुम्हें और सुनाऊंगा” अगर तुम उनकी बात मान कर चले गये तो ये उनका सम्मान नहीं हुआ बल्कि ये तो उनकी शान में गुस्ताखी हो जाती थी। सारे इसीलिये अक्सर भड़क जाते थे क्योंकि उनकी भड़ास निकलने से पहले तो मैं बाहर आ जाता था। समय लगा, मगर जीवन सीखने की प्रकिर्या का नाम है। देर आये, दुरूस्त आये।
5) विवशता
कंजूसी और धैर्यशील होने में बहुत अन्तर होता है। बहुत से लोग सोचते हैं कि जो लोग पैसे खर्च नहीं करते वे सब कंजूस होते हैं क्योंकि वे पैसा अपनी जरूरतों पर न खर्च करके बेकार में कष्ट भोग रहे हैं। जबकि ऐसा कुछ नहीं होता जो व्यक्ति धैर्यशील होते हैं, वे खर्चा तो करते हैं पर केवल अपनी जरूरतों पर ना की अनावश्यक जरूरतों पर। फिर चाहे वो कैसे भी बचत करें या खर्च करें, क्या फर्क पड़ता है? तो मेरे हिसाब से तो जो व्यक्ति पैसा खर्च नहीं करता वो हर व्यक्ति कंजूस नहीं होता। शायद वो अपने भविष्य की कुछ तैयारी कर रहा हो।
मेरे अन्दर ना जाने कब और कहाँ से ये बचत की प्रवृत्ति का विकास हुआ, ठीक से याद नहीं है मुझे। बस ये था कि मैं पैसा इकट्ठा करता और एक अच्छी-खासी रकम होने पर किसी जरूरी काम में खर्च कर देता। बचत को इस तरह से खर्च करना मुझे बड़ा सुकून देता, बजाये फिजूल खर्ची करने के।
उन दिनों मैं खुद को स्नातक बनाने की कोशिश में लगा था। कालेज घर से पांच किलोमीटर की दूरी पर थ। रोज-रोज किराये के पैसे घर से माँगने की मेरी आदत भी नहीं थी तो फैसला लिया गया कि एक साईकिल ली जाये। अब नया सवाल ये खड़ा हो गया कि जब किराये के पैसे माँगने की हिम्मत नहीं है तो साईकिल के पैसे कैसे मांगे जाये। तुरन्त दिमाग में मेरा पुराना उपाय आया कि पैसे इकट्ठे किये जाये और साईकिल का इन्तजाम किया जाये।
चींटियों की भाँति मैं अपने धन भण्डार के संयोजन में लग गया ताकि समय आने पर उसका उपभोग कर सकूँ। एक निश्चित रकम इकट्ठी करने में सात माह का वक्त लगा, वो भी नई साईकिल के लिए नाकाफ़ी थी। इस संघर्ष के बीच में स्नातक प्रथम वर्ष अपने पैरों के सहारे पास भी कर चुका था। अब मैंने नई साईकिल का विचार त्यागा और एक सेकेण्ड हैण्ड साईकिल खरीद ली।
फिर उस साईकिल पर सवार हो, मुझमें और मेरे विचारों को जैसे पंख लग गये। इतना लोग बाईक और कारों में नहीं घूमते होंगे जितना मैं उस साईकिल पर सवार रहता था। खैर वक्त बीता और मैं स्नातक हो चुका था। साईकिल अब एक कोने में पड़ी रहती थी, क्योकिं मेरे पास भी उसे चलाने की फुर्सत नहीं थी। तकरीबन एक साल वो उसी अवस्था में एक कोने में पड़ी रही और मुझे लगता की ये शायद अपनी इस हालत के लिये मुझे दोषी मान रही है। तभी एक दिन माता जी ने एक अद्भुत और अजीब फैसला लिया। उन्होंने कहा,”कि अब इसे कोई नहीं चलाता, ये खामखां कोना घेरे पड़ी है, इसे कबाडे में बेच दो।” मैं तो भौचक्क सा उनकी तरफ देखता रह गया पर बात उनकी भी सही थी, वो एक कोने में खड़े-खड़े गल जो रही थी। मैंने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई और बस लग गयी मुहर उस साईकिल की तकदीर पर।
अगले ही दिन एक कबाडे वाला जो रोज हमारी कालोनी में आता था, उससे सौदा हुआ और थोड़ी माथा-पच्ची के बाद कीमत तय हो गयी। साईकिल बड़बड़ाती रही और मुझे ताने देती हुई उस कबाडी के ठेले पर लाद दी गयी। अब बारी थी पैसे देने की और जब उस कबाडे वाले ने मुझे पैसे दिये तो उसके पास सौ रुपये कम थे। उसने वायदा किया कि उसका कालोनी में रोज का आना जाना है, कल दे जाऊँगा। पैसे के मामले में मैं किसी का विश्वास नहीं करता था और फिर मैं शहर से बाहर भी रहता था। मैंने अपनी दलील रखी ती उसने प्रत्युत्तर में कहा कि “बाबू जी, मैं आपकी माता जी को दे जाऊँगा।” माता जी ने भी उसका समर्थन किया और मुझसे कहा, “ठीक है, कोई बात नहीं, दे जायेगा कल।” अब फिर कोई सवाल ही नहीं बचा। मैंने वो पैसे अपनी जेब में रख अपनी स्नातक की डिग्री की सहेली और मेरी चहेती को अंतिम विदाई दी।
अगली सुबह मैं माता जी को सौ रुपये लेने की बात याद दिला कर अपने काम पर निकल गया और धीरे-धीरे काम में व्यस्त हो गया। अगले हफ्ते जब मैं लौटा तो माता जी से बात हुई तो माता जी ने बताया कि वो कबाडे वाला तो उस दिन के बाद से कहीं दिखा ही नहीं। मुझे बहुत क्रोध आ गया और अनेकों अशिष्ट बातें और विचार दिमाग के रास्ते मुँह से निकलने लगे। माता जी ने इस पर मुझे बहुत समझाया और मैं भी नियती मान चुप हो गया।
खैर वक्त बीता और मैं उस बात को भूल गया पर कभी-कभी वो बात जेहन में आ ही जाती और जब भी याद आती तो मैं लोगों को कहानी बताता व उस कबाडे वाले को खलनायक और खुद को नायक की तरह पेश करता। मैं अक्सर लोगों से कहता कि अगर नहीं देने थे तो मना कर देता पर आना क्यूँ बन्द कर दिया और लोग भी उसकी बेईमानी को और कचोटते। खैर ये सब तो कहने की बातें थी, पर मैं अब भी उसकी शक्ल भूला नहीं था। न भूलने का ये भी कारण था कि मैं कभी किसी का पैसा रखता नहीं था तो अपना कैसे भूल जाता। फिर जीवन के संघर्षों के बीच कुछ यादें धुंधली हुई और याद रह गयी बस मेरी साईकिल।
इस सब के बीच दो साल का वक्त जाने कब बीत गया मुझे पता ही नही चला। एक शाम मैं विद्यालय से पढ़ा कर लौटा ही था, तो आँगन में बैठ कर अखबार पढ़ रहा था क्योंकि सुबह वक्त नहीं मिलता था। तभी एक मैला-कुचैला सा, बड़ी हुई दाढ़ी और गन्दे से बाल का व्यक्ति आया और मुझसे बोला, “भाई साहब नमस्कार।” मैंने कहा, “नमस्कार(मुझे लगा, भिखारी है इसलिये बेरूखी से देखा उसे)” तो वो बोला, “भाई साहब, पहचाना मुझे?” मैंने अखबार रख घूरा उसे पर पहचान नहीं पाया और कहा, “नहीं, कौन हो तुम?” वो बोला, “जी मैं वही कबाडे वाला हूँ जो आपकी साईकिल खरीद के लेकर गया था,आपके उसमें से सौ रुपये रह गये थे, ये लीजिये।”
मैं आश्चर्य से उसे देखता रह गया और मुँह से बस ये निकला, “बैठो यहाँ, अब तक कहाँ थे?” वो बोला,” साहब अगले दिन जब मैं आपके पैसे देने आ रहा था तो मैं एक कूड़ेदान से रोज की भाँति काम का सामान खोज रहा था। तो मुझे कुछ पीतल और लोहे का सामान मिला, मैंने वो सामान उठाया और ठेले पर रखा, तभी कुछ सरकारी लोगों ने मुझे घेर लिया और सरकारी सामान की चोरी में मुझे पकड़ लिया जबकि मुझे पता भी नहीं था कि वो सरकारी सामान था। मुझ पर केस चला और जुर्माना लगाया गया, जुर्माना न चुकाने की वजह से दो साल की जेल हुई। बस जैसे ही निकला आपके पास आ रहा हूँ। मुझे इस सजा की चिन्ता नहीं थी, बस वही सोच रहा था कि आप क्या सोचेंगे।”
आशा है आप मेरी विवशता को समझेंगें। वो कहे जा रहा था और मैं जमीन में धसता जा रहा था। एक अलग ही जहां में पहुँचा दिया उसने मुझे। कल तक जो सौ रुपये मुझे पहाड़ जैसे लग रहे थे जिनके बिना मेरे सारे काम रुके पड़े थे वो अब तिनके से थे। विचारों की व्यापकता और समझदारी की दुकान सब अस्त-व्यस्त हो गयी। खुद को कहाँ छिपाऊँ समझ नहीं आ रहा था। अपना बडप्पन दिखाने और गन्दगी छिपाने की मैंने कोशिश की, “कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, मैं तो भूल चुका था इन्हें, आप रख लो।” वो बोला, “रखने ही होते तो साहब दो साल से बैचैन क्यों रहता?” और नमस्कार कर चलता बना।
मैं अपने अन्दर झांकते हुये अब भी पूछता हूँ कि क्या मैं इतना विवश था कि जाने कहाँ-कहाँ उसकी बुराई कर निन्दा रस लिया पर उसकी विवशता के आगे मेरी खुद को छिपाने की ऊकोशिश हमेशा मिथ्या ही रहती है।
लेखक: सुमित सिंह पवार “पवार” (आगरा, उत्तर प्रदेश)