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वे लौट रहे हैं
वे लौट रहे है उम्मीदों का शहर छोड़कर आंखों के दरिया का रुख़ मोड़कर। रूखा ही सही, भुखा नहीं है कोई गाँव में शहरों ने तो छाले दिये है पाँव में। जिन घरों में कमरा अलग से हो सग का उनसे भी नहीं संभला बोझ मामूली से बैग का। जिसने एक-एक ईंट लगाई ऊंची इमारत…