आदमी

अपने ही बनाए जाल में, फँस रहा है आदमी। अपनों को ही नाग बनकर, डस रहा है आदमी। प्रकृति को हानि पहुँचाकर भूल रहा है मतवाला, अपनी ही सांसों पे शिकंजा कस रहा है आदमी। भौतिक सुख के पीछे ही…

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